हम नहीं रुकेंगे, मुम्बई नहीं डरेगी, आतंकवाद के मुँह पर तमाचा जड़ेंगे और भी न जाने क्या क्या। आप कहते रहिए जो कहना है, करने वाले अपना काम कर गए। बीस से तीस साल के कुछ जवान मुसलमानों ने पूरे शहर को सच्चे इस्लाम की परिभाषा समझा दी। जगह जगह लगे सीसीटीवी कैमरों से ली गईं तस्वीरों स्पष्ट है कि ये इस्लाम के सैनिक हँसते हँसते अपने मज़हब की राह में फ़िदा होने आए थे।
पर हमने तो ये कसम खा रखी है कि हम नहीं सुधरेंगे। इस ग़द्दार क़ौम के साथ एकता और सद्भाव फैलाएँगे। और जैसा चल रहा है वैसा चलता रहेगा। फिर कल आतंकवादी हमला होगा फिर कुछ निर्दोष हिन्दू मारे जाएँगे, फिर से राष्ट्र के नाम प्रधानमन्त्री का मरियल सन्देश आएगा, फिर से शहीदों की याद में कुछ मोमबत्तियाँ जलेंगी और हम एक बार फिर एक नए हमले का इंतज़ार करने लगेंगे। सच्चा मुसलमान (अर्थात् धोखेबाज़ नागरिक) भी घड़ियाली आँसू बहाकर कर फिर ऐसे ही नए कुकृत्य के लिए असला जमा करने लग जाएगा। फिर से हमला होगा और इसी घटनाक्रम की पुनरावृति होती रहेगी।
अब समय किसी पर दोष मढ़ने का नहीं बल्कि राष्ट्र के असली शत्रु को पहचानने का है। ग़द्दारी और आतंकवाद तो मुसलमान की फ़ितरत है ही। वो कहाँ चुप बैठने वाला है? पर बहुसंख्यक होने के बावजूद यदि तुम उसे चुप न करा पाओ तो यह तुम्हारी कमी है। नृशंसता और पशुता तो मुहम्मद द्वारा सिखाई ही गई है पर तुम यदि ऐसे लोगों को भजन सुनाओ तो वो तुम्हारी मूर्खता है।
सच्चाई तो यह है कि अल्लाह के बन्दे एक बार फिर हँसे है और क़ुरआन के अनुसार उन्हें जन्नत मिलना तय है। आख़िर 186 काफ़िरों को मौत के घाट उतारने के बाद तो अल्लाह ने इन्हें इतना सबाब दिया होगा कि इनकी आने वाली पीढ़ियों को भी जन्नत का पासपोर्ट मिल जाएगा।
बस रोई है तो केवल भारत माता। रोए हैं तो हमारे तमाम हिन्दू भाई जो बिना बात के इस्लाम की बलि चढ़ गए। क्या तुम्हें इनका क्रंदन नहीं सुनाई देता। अगर नहीं तो तुमसे बड़ा नपुंसक इस पूरे विश्व में नहीं है। तुम ऐसे ही यदि सेक्युलर बनते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब यह ऐसा ही नंगा नाच पूरे देश में दिखाएँगे। रसूल और अल्लाह की शिक्षा ऐसे ही फैलाएँगे। तुमने इस तथ्य को अभी भी नकारा तो ध्यान रखो अन्त समीप है।
शनिवार, 29 नवंबर 2008
बुधवार, 26 नवंबर 2008
आत्मदया नहीं आक्रोश पालो!!
देशभक्त पाठकों,
आपकी टिप्पणियाँ एवं पत्र मुझे बड़ी संख्या में प्राप्त हो रहे हैं। कुछ में प्रशंसा व्यक्त की गई है जबकि अन्य में सुझाव हैं। एक सज्जन ने मुझे सलाह दी है कि मैं इस ब्लॉग पर हिन्दुओं के विरुद्ध हो रहे मुसलमानों के अत्याचार और ज्यादतियों के आँकड़े भी दूँ। मैं इसके लिए उन्हें धन्यवाद देता हूँ। साथ ही साथ मैं उनसे क्षमा भी माँगता हूँ क्योंकि मैं अपने इस हिन्दू बन्धु की इस सलाह को मानने में सर्वथा असमर्थ हूँ।
मैं और मुझ जैसे तमाम हिन्दू ये जानते हैं कि मुसलमानों ने हमारे लोगों और हमारी मातृभूमि पर कितना अत्याचार किया है। किस तरह इन बर्बर भेड़ियों ने कश्मीरी पण्डितों पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें उनकी पितृभूमि से वञ्चित कर दिया। कैसे 1947 में इस क़ौम और गाँधी की दुरभि सन्धि से हमारी पवित्र भूमि के टुकड़े कर दिए गए।
पर मैंने इन तथ्यों का सहारा न तो कभी लिया न कभी लूँगा। क्यों? क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि इन तथ्यों से हमारे लोगों में केवल आत्मदया का ही संचार होगा। इतिहास में या वर्तमान में हो रहे अत्याचारों से केवल जुगुप्सा ही पैदा होगी जिससे हमारे लोगों में इस्लाम का डर और मज़बूत हो जाएगा।
क्रान्ति को तो वीर रस की ज़रूरत होती है। इसलिए हमें जो परिस्थिति, जो तथ्य आत्मदया का बोध कराए उससे दूर रहना और सम्भव हो तो मिटा देना ही अच्छा है। हिन्दुओं का क़त्ले-आम, नृशंस मुसलमानों द्वारा देश की दुर्दशा और इसी तरह के अन्य विलाप मैंने बहुत बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्रों में पढ़े हैं। पर इन से न तो हिन्दुत्व का भला हुआ न ही देश का। क्रान्ति का संचार होना तो बहुत दूर की बात है।
यदि हमें इस क़ौम को अपने देश से बाहर खदेड़ना है तो हमें उन्हीं उदाहरणों को याद रखना होगा जिसपर आम हिन्दू गौरव कर सके। क्योंकि क्रन्दन से तो दुख पैदा होता है और दुख से शोक की उत्पत्ति होती है। और शोकाकुल रहने वाले लोगों से किसी वीरता की उम्मीद रखना मूर्खता है। आत्मदया से पीड़ित व्यक्ति हिन्दू राष्ट्र जैसे महान् उद्देश्य के लिए असमर्थ ही नहीं बहुत बड़ा ख़तरा भी है। यह व्यक्ति तो एक बीमार सैनिक की भाँति है जो जंग के मैदान में चार सैनिकों के कंधे पर चढ़ कर अस्पताल आता है।
आत्मदया आदमी की भावनाएँ कुछ समय के लिए उद्वेलित करती है पर उसके बात जैसे-जैसे व्यक्ति तथ्य भूलता जाता है उसका उत्साह ठण्डा पड़ जाता है। फिर धीरे धीरे उसकी नपुंकता उस पर हावी हो जाती है और वह शान्त होकर सर्वधर्म समभाव जैसी कायरतापूर्ण बातें करने लग जाता है।
इसीलिए हे हिन्दू वीरों! याद रखो उस शिवाजी को जिसने मुसलमान औरंगज़ेब को उसके जीते जी अल्लाह के दर्शन कराए थे। याद करो 6 दिसम्बर 1992 को जब कुछ एक ठोकरों ने बाबरी मसजिद को मटियामेट कर दिया था। 2002 में गुजरात में कारसेवकों की निर्मम हत्या का बदला किस तरह लिया गया था। ये कुछ वाक़ये हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं। हम पर, या हमारी क़ौम पर यदि कोई अत्याचार हो रहा है तो उसके लिए हम और हमारी कायरता ही ज़िम्मेदार है। बहुसंख्यक के ऊपर यदि कोई ज़ुल्म हो रहा है तो वह प्रकाशित करने की बात नहीं बल्कि साम्प्रदायिक शर्म है और कुछ नहीं।
ईमेल सम्पर्क: matribhoomibharat@gmail.com
आपकी टिप्पणियाँ एवं पत्र मुझे बड़ी संख्या में प्राप्त हो रहे हैं। कुछ में प्रशंसा व्यक्त की गई है जबकि अन्य में सुझाव हैं। एक सज्जन ने मुझे सलाह दी है कि मैं इस ब्लॉग पर हिन्दुओं के विरुद्ध हो रहे मुसलमानों के अत्याचार और ज्यादतियों के आँकड़े भी दूँ। मैं इसके लिए उन्हें धन्यवाद देता हूँ। साथ ही साथ मैं उनसे क्षमा भी माँगता हूँ क्योंकि मैं अपने इस हिन्दू बन्धु की इस सलाह को मानने में सर्वथा असमर्थ हूँ।
मैं और मुझ जैसे तमाम हिन्दू ये जानते हैं कि मुसलमानों ने हमारे लोगों और हमारी मातृभूमि पर कितना अत्याचार किया है। किस तरह इन बर्बर भेड़ियों ने कश्मीरी पण्डितों पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें उनकी पितृभूमि से वञ्चित कर दिया। कैसे 1947 में इस क़ौम और गाँधी की दुरभि सन्धि से हमारी पवित्र भूमि के टुकड़े कर दिए गए।
पर मैंने इन तथ्यों का सहारा न तो कभी लिया न कभी लूँगा। क्यों? क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि इन तथ्यों से हमारे लोगों में केवल आत्मदया का ही संचार होगा। इतिहास में या वर्तमान में हो रहे अत्याचारों से केवल जुगुप्सा ही पैदा होगी जिससे हमारे लोगों में इस्लाम का डर और मज़बूत हो जाएगा।
क्रान्ति को तो वीर रस की ज़रूरत होती है। इसलिए हमें जो परिस्थिति, जो तथ्य आत्मदया का बोध कराए उससे दूर रहना और सम्भव हो तो मिटा देना ही अच्छा है। हिन्दुओं का क़त्ले-आम, नृशंस मुसलमानों द्वारा देश की दुर्दशा और इसी तरह के अन्य विलाप मैंने बहुत बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्रों में पढ़े हैं। पर इन से न तो हिन्दुत्व का भला हुआ न ही देश का। क्रान्ति का संचार होना तो बहुत दूर की बात है।
यदि हमें इस क़ौम को अपने देश से बाहर खदेड़ना है तो हमें उन्हीं उदाहरणों को याद रखना होगा जिसपर आम हिन्दू गौरव कर सके। क्योंकि क्रन्दन से तो दुख पैदा होता है और दुख से शोक की उत्पत्ति होती है। और शोकाकुल रहने वाले लोगों से किसी वीरता की उम्मीद रखना मूर्खता है। आत्मदया से पीड़ित व्यक्ति हिन्दू राष्ट्र जैसे महान् उद्देश्य के लिए असमर्थ ही नहीं बहुत बड़ा ख़तरा भी है। यह व्यक्ति तो एक बीमार सैनिक की भाँति है जो जंग के मैदान में चार सैनिकों के कंधे पर चढ़ कर अस्पताल आता है।
आत्मदया आदमी की भावनाएँ कुछ समय के लिए उद्वेलित करती है पर उसके बात जैसे-जैसे व्यक्ति तथ्य भूलता जाता है उसका उत्साह ठण्डा पड़ जाता है। फिर धीरे धीरे उसकी नपुंकता उस पर हावी हो जाती है और वह शान्त होकर सर्वधर्म समभाव जैसी कायरतापूर्ण बातें करने लग जाता है।
इसीलिए हे हिन्दू वीरों! याद रखो उस शिवाजी को जिसने मुसलमान औरंगज़ेब को उसके जीते जी अल्लाह के दर्शन कराए थे। याद करो 6 दिसम्बर 1992 को जब कुछ एक ठोकरों ने बाबरी मसजिद को मटियामेट कर दिया था। 2002 में गुजरात में कारसेवकों की निर्मम हत्या का बदला किस तरह लिया गया था। ये कुछ वाक़ये हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं। हम पर, या हमारी क़ौम पर यदि कोई अत्याचार हो रहा है तो उसके लिए हम और हमारी कायरता ही ज़िम्मेदार है। बहुसंख्यक के ऊपर यदि कोई ज़ुल्म हो रहा है तो वह प्रकाशित करने की बात नहीं बल्कि साम्प्रदायिक शर्म है और कुछ नहीं।
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