शनिवार, 3 जनवरी 2009

नया तंत्र नई व्यवस्था

इस राष्ट्र के जनतन्त्र घोषित होने के बाद कई राजनीतिक दलों ने जनता के माध्यम से अपना उल्लू सीधा करने के लिए जनसाधारण की अल्पबुद्धि को ही अपना हथियार बनाना उचित समझा। अपने अपने ढंग से वायदे. कायदे समझाए गए और सत्ता प्राप्ति के प्रयास निर्लज्जता से किए जाने लगे। गरीबी हटाओ से लेकर हिन्दुत्व लाओ तक कई मुद्दे लाए गए पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि न तो ग़रीबी गई न हिन्दुत्व आया। सत्तालोलुप नेताओं के लिए पहले आलेखों में भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है इसलिए उनके चरित्र का वर्णन पुन: करना निरर्थक है।

हर साधारण व्यक्ति यह जानता है कि देश के नेता जिस गति से राष्ट्र को पतन की ओर ले जा रहे हैं उसके परिणाम क्या होंगे। फिर भी वह विवश है। क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं। वो सिर्फ़ ये कहके संतोष कर लेने पर मजबूर है कि सब चोर हैं और जो चल रहा है वैसे ही चलता रहेगा। आम आदमी परिस्थितियों में परिवर्तन की आशा लगभग छोड़ चुका है। पेज थ्री के लोग यानी आचार विचार रहित जनता जो देश की जनसंख्या का मात्र 6% ही है, मौज काट रही है। मुसलमान और मार्क्सवादी देशद्रोह के नए नए आयाम तलाशने में जुटे हैं और प्रतिदिन नीचता के नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं।

पर स्थिति को बदलना होगा। परिस्थितियों में परिवर्तन आवश्यक है। और ये सब कैसे होगा मैं बताता हूँ।

आज भारत माता के इस मुश्किल वक्त में जहाँ हमें 16 करोड़ आईएसआई के एजेण्टों अर्थात् सच्चे मुसलमानों के बीच रहना पड़ रहा है वहीं ग़द्दार साम्यवादियों को झेलना हम सबकी मजबूरी है। देश को सेक्युलरवादियों से भी ख़तरा है पर परिस्थितिवश हमें इनके साथ रहना ही पड़ता है। स्थिति जटिल अवश्य है पर अपरिवर्तनीय नहीं। इसको बदलने के लिए हम सबको आगे आना होगा। और हमें किसी भी कुर्सी का मोह त्यागना होगा। लड़ाई सत्ता के लिए नहीं अपितु विचारधारा के लिए लड़ी जाएगी, देशहित के लिए लड़ी जाएगी। जंग देश के तमाम आत्महत्या करने पर मजबूर किसानों के लिए होगी, उन जवानों के लिए होगी जो देश के लिए बलिदान देने को तत्पर रहते हैं। उस सरकारी कर्मचारी के लिए होगी जो जीवन भर कलम घिसता रहता है और पीएफ़ की दरें बढ़ने पर ही खुश हो जाता है।

राष्ट्रप्रेमियों यदि हम अपने ये मुद्दे जनता को भली भाँति समझा पाए तो सत्ता के लिए किसी संघर्ष की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। हमारे इरादे और हमारे विचार साफ़ हैं। हमें किसी प्रकार की न तो कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा है न ही सत्ता की कोई लिप्सा। भले ही सफलता प्राप्ति में हमें थोड़ा समय लगे, थोड़ा संघर्ष करना पड़े पर हम सफल होंगे ही ऐसा मेरा मानना है। बस हमें तर्कसंगत बात को अपनाना है और ये समझ लेना है कि कोई भी कानों को अच्छी लगने वाली बात जो किसी मुसलमान या मार्क्सवादी के मुख से निकली है वो अच्छी नहीं होगी क्योंकि वो अच्छी हो ही नहीं सकती। तब हम अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा पर अटल अडिग रह पाएँगे अन्यथा अन्त निश्चित है।

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