शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

शहीद:19 दिसम्बर 1927

16 दिसम्बर 1927 की रात। डीएसपी शफ़ीकुर्रहमान अपनी पत्नी मज़हर्रुन्निसा को एक काग़ज़ देते हैं जिसे लेकर वो सीधे फ़ैज़ाबाद जेल पहुँचती हैं। वो अन्दर जाती हैं और पर्चा जेल में बन्द अपने बेटे को देती हैं। ये पर्चा एक माफ़ीनामा है जिससे उस नौजवान की सज़ा कम हो सकती है। पर वो एक नज़र पर्चे को देखता है फिर अपनी माँ से कहता है-

“इस मुल्क के करोड़ों मुसलमानों में से आज तक कोई भी मादरे वतन के लिए नहीं मिटा। तू भी मुझे रोक रही है”

यह कह कर अश्फ़ाकुल्लाह ख़ान ने पीठ मोड़ ली और काकोरी काण्ड के मुजरिम के तौर पर 19 दिसम्बर 1927 को हँसते हँसते चढ़ गया फाँसी। देश के एक सच्चे सपूत की भाँति। एक सच्चे वीर की तरह

19 दिसम्बर 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल को भी काकोरी काण्ड मामले में ही गोरखपुर जेल में सूली पे चढ़ा दिया गया। शायद राष्ट्र के प्रति बलिदान देने की जिजीविषा उनमें इतनी थी कि उन्होंने पहले ही लिख दिया था-

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


कहते हैं जो समाज अपने शहीदों को भुला देता है, वीरों के बलिदानों को तिलांजलि दे देता है वो मिट जाता है। और यही शायद हमारे साथ हो रहा है। ठीक तीन महीने पहले जामिया नगर मुठभेड़ हुई थी। उसमें मारे गए देशद्रोहियों की कब्रों पर फातिहे पढ़े गए थे, उनकी मौत से क्षुब्ध होकर ईद नहीं मनाई गई थी। पर अश्फ़ाकुल्लाह जैसे शहीद को श्रद्धञ्जलि देने के लिए किसी इमाम के पास समय नहीं था। क्योंकि अश्फ़ाक़ इस्लाम के लिए नहीं देश के लिए शहीद हुआ था। उसका लक्ष्य सत्ता नहीं देश की मुक्ति था। शायद इसीलिए मुसलमानों की निगाह में वो नायक नहीं, वीर नहीं। क्योंकि इस्लाम की तो शुरुआत मुहम्मद ने मक्के की सत्ता हथियाने के लिए की थी। इसी की शिक्षा उसने दी तभी तो चाहे वो अबू बकर हों, अली हों हों सारे ख़लीफ़े पिछले वाले को मारकर ख़लीफ़ा बने। पर अश्फ़ाक ने तो देशहित में काम किया था। वो देश की कुर्सी के लिए तो लड़ाई ही नहीं कर रहा था फिर मुसलमान उसे कैसे महान् और सच्चा मुसलमान मानते। पर मैं जानता हूँ कि मेरी और मेरे जैसे राष्ट्रवादियों की दृष्टि में अश्फ़ाकुल्लाह ख़ान महान् हैं।


matribhoomibharat@gmail.com