शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

बहुत सही बात है। अल्लामा इक़बाल (जो स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान चले गए थे) का गीत सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा बरसों से गाया जाता रहा है। ऐसे में किसी ने उस गाने को ठीक से समझने की कोशिश नहीं की।

इक़बाल साहब लिखते हैं- ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ तो हम भी सोच में पड़ जाते हैं कि कौन सा ऐसा धर्म होगा जो नफ़रत सिखाता होगा? पर मूर्खता की पराकाष्ठा तक भोले भाले हिन्दुओं को कौन समझाए कि सच्चाई क्या है।

यहाँ मज़हब का मतलब क़ुरआन से लिया गया है। कुरआन में लिखा है-

“मुहम्मदुर्रसूलुल्लाहे वल्लज़ीना मआहु अशिद्दाओं अलल्कुफ़्फ़ारे रोहमाओ वैनहुम”
कुरआन पारा 26 रकू 4/12 मु. फ़हे

इसका मतलब है कि मुहम्मद ही अल्लाह का सच्चा रसूल है और जो मुसलमान (मोमिन) उसके साथ हैं वो आपस में दयालु हैं और काफ़िरों (इसलाम पर ईमान न लाने वालों) के लिए बहुत कठोर और कड़े हृदय वाले हैं।
ऐस में मज़हब सिखाता है कि मोमिनों आपस में कभी बैर मत रखो क्योंकि उससे काफ़िरों के हाथ ही मज़बूत होंगे।
एक और आयत इस प्रकार है-

“व मय्यंव्तग़े ग़ैरल्इस्लामे दीनन फ़लय्युंक्वलामिन्हो व हुवा फ़िल आखेरते मिनल्ख़ासिरीन”
कुरआन पारा 3 रकू 6-17

यह आयत कहती है कि जो इस्लाम (दीन) के अलावा कोई और मत स्वीकार करेगा और हज़रत मुहम्मद जो कि तमाम अन्य मज़हबों को निरस्त करने वाले हैं (उनकी आज्ञा नहीं मानेगा) तो उसे कभी भी स्वीकार नहीं किया जाएगा और ऐसा व्यक्ति परलोक में भी हानि उठाएगा।

इनका पन्थ कभी भी इनके छोटी सी सोच के दायरे से बाहर नहीं निकल सका जबकि हम लोगों की सोच हमेशा से ही वसुधैव कुटुम्बकम् रही। हमारा और इनका मेल हो सकता है भला। गंगा और किसी नाले का भला कोई साम्य हो सकता है?

मैं कहता हूँ मुहम्मद है क्या चीज़? जो हमारे धर्म को निरस्त कर देगा। ख़ैर अब तक तो वो और उसके बंदे मिलकर हमारे धर्म का कुछ विशेष नुक़सान कर नहीं पाए हैं पर हम कब समझेंगे इन लोगों के वहशीपन को? हम कब मिटाएँगे अपनी अज्ञानता को? कब जानेंगे कि हमारा धर्म सनातन है जिसका न कोई आदि है न अन्त। और इनका धर्म... क्षमा कीजिए पंथ किसी गडरिए का निरर्थक संवाद है। किसी अनपढ़ आदमी के दिमाग़ की उपज। थोड़ा समझिए और हिन्दुत्व क्रान्ति का आह्वान् कीजिए।

बुधवार, 24 सितंबर 2008

मुशीरुल हसन: आतंकवादियों का रहनुमा

देश भर की पुलिस ने आतंकवादियों की धरपकड़ तेज़ कर दी है। इस क्रम में जगह जगह से लोगों मेरा मतलब अल्लाह के नेक बंदों को पकड़ा जा रहा है। दिल्ली में एक तो मुंबई में पाँच सच्चे मुसलमानों को गिरफ़्तार किया गया है। सब के सब पढ़े लिखे हैं। कोई इंजीनियर है तो कोई दार्शनिक, ऐसे में कौन कहता है इस्लाम प्यार और अमन सिखाता है?

जामिया नगर का जामिया विश्वविद्यालय यानी पढ़े लिखे आतंकवादियों का गढ़। ये बात आज साबित भी हो गई जब यहाँ के उपकुलपति मुशीरउल हसन ने पकड़े गए ‘मासूम’ छात्रों को क़ानूनी मदद देने की बात की। क्या बा है! मुझे अपने आप पर और आप पर बड़ी लज्जा आई। ये सोच कर कि हम कैसे लोगों के बीच रह रहे हैं। इस क़ौम के साथ रहना ही परमवीर चक्र जीतने के बराबर है। बस यही एक कसर बाक़ी थी। मुसलमान यानी वो समुदाय जिसका एक धड़ा पहले हम काफ़िरों को मारता है और इनके प्रबुद्ध जन अपनी शिक्षा को हमारे विरुद्ध प्रयोग में लाते हैं।

जामिया का मतलब समुदाय या कुछ लोगों का समूह। अगर चलताऊ भाषा में क जाए तो एक अड्डा.... जी हाँ आतंक का अड्डा और ये सब वहीं तो होगा जहाँ कुरआन शरीफ़ (सचमुच शरीफ़???) को मानने वालों की संख्या अधिक हो। और इन लोगों से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं। अनपढ़ रहेंगे तो दंगे करेंगे। पढ़ेंगे तो बम बनाएँगे। इतिहासकार हुए तो हमारे ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करेंगे, डॉक्टर हुए तो अतंकियों के मुफ़्त ऑपरेशन करेंगे।

हम हिन्दू आँखें बन्द किए बैठे रहेंगे कभी राम तो कभी कृष्ण की महिमा के बखान करेंगे और ऐसे ही इन गोमाँस खाने वालों की मुसलमानियत के शिकार होते रहेंगे। थोड़ा सोचिए मज़हब की सेवा करने वालों के सामने हम कहाँ टिकते हैं?

सोमवार, 22 सितंबर 2008

आतंक का राजा कौन? इमाम बुखारी

आज एक न्यूज़ चैनल पर हेडलाइन चल रही थी- ‘फिर फिसली सानिया’। ख़बर सानिया मिर्ज़ा की डब्ल्यूटाए रैंकिग में 92वें स्थान पर फिसलने को लेकर थी। ग़लत बात है। ऐसा किसी को नहीं कहना चाहिए वो भी तब जब कोई व्यक्ति ग़लत लाइन में हो। अब अगर सानिया मिर्ज़ा बम बनाने का काम कर रही होतीं तो फिसलने का कोई सवाल उठता? अब एक तो आतंकवादी क़ौम की उस लड़की से आप छोटी छोटी स्कर्टें पहना कर टेनिस खिलवाएँगे तो उसका फिसलना तो अवश्यंभावी है ही....जब मोहम्मद अज़हरुद्दीन को हमने कप्तान बनाया था तो क्या हुआ था? उसने टीम इण्डिया को ही बेच डाला था।
चलिए छोड़ें अब बात उन सच्चे मुसलमानों की जिनका एनकाउण्टर करके जिन्हें दिल्ली पुलिस ने कुत्ते की मौत मार दिया। पोस्टमॉर्टम के बाद उनको परिवार को सौंप दिया गया लेकिन उनको दफ़नाने के दौरान घरवाले भी मौजूद नहीं थे। थे तो जामा मस्जिद के इमाम बुख़ारी साहब जो ऐसे मौकों पर अक्सर देखे जाते हैं पर कोई न्यूज़ चैनल नहीं बोला। क्यों? क्योंकि सब डरते हैं मुसलमान नाराज़ हो जाएगा। अरे कब तक इन रक्तबीजों की नाराज़गी से डरोगे? 30 प्रतिशत होते ही इन अल्लाह के बंदों का नंगा नाच शुरू हो जाएगा तब 30 प्रतिशत से 100 प्रतिशत होने में इन्हें ज़्यादा समय नहीं लगेगा। अरे रक्तपिपासु आदमख़ोरों पर कैसी दया? इनके कौन से मानवाधिकार? और किस बात से डर रहे हो? एक बार डर को त्याग दो और कूद पड़ो मैदान में हिंदुत्व के रक्षक सेनानियों की भाँति फिर देखो ये 16 प्रतिशत आबादी कैसे दुम दबा कर अपने आकाओं के पास पाकिस्तान भागती है।