देशभक्तों,
यूँ तो मैं आत्मदया और बुरे अनुभवों के प्रचार के माध्यम से किसी क्रान्ति की अपेक्षा नहीं करता। पर आज, यानी राष्ट्रीय शर्म की सातवीं बरसी पर मन कुछ दुखी था। इसलिए यदि इस आलेख से चित्त थोड़ा खिन्न हो जाए तो आप मुझे क्षमा करेंगे। ऐसी मैं आशा रखता हूँ।
यह एक विडम्बना ही है कि 6 और 13 दिसम्बर ये दोनों ही दिनांक साल में एक ही दिन पड़ती हैं। पहली जहाँ हमें हिन्दू शौर्य का स्मरण कराती है वहीं दूसरी हमारे नेताओं की अकर्मण्यता की याद दिलाती हैं। यहाँ मैं एक बात और जोड़ना चाहूँगा। इन दोनों ही घटनाओं के उत्तरदायी दो व्यक्ति है।
हमारे हिन्दू शूरवीरों ने जिस योजनाबद्ध तरीके से एक राष्ट्रीय कलंक को 6 दिसम्बर 1992 को धोया उस योजना के पीछे दो सत्ता के लालची लोगों का हाथ था। एक ने तो सत्ता का पूर्ण सुख भोग लिया पर दूसरा अभी भी कतार में है। यह व्यक्ति 13 दिसम्बर 2001 की घटना के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है। इस सत्तालोलुप व्यक्ति को आजकल भारत के प्रतीक्षारत प्रधानमन्त्री के नाम से भी जाना जा रहा है। असल में इसने भारत भूमि पर राज करने के लिए हिन्दुत्व का भी जमके सहारा लिया अपना उल्लू सीधा किया पर अब बदले माहौल को देखकर सेक्युलरवाद की राह पकड़ अपनी स्वार्थसिद्धि की कामना कर रखता है।
यदि यह हाल है आदर्शवादी और इमानदार माने जाने वाले नेताओं का तो तमाम सेक्युलरवादियों और अन्य दलों के नेताओं से कोई भी आशा रखना मूर्खता ही है।
पर कभी आपने यह सोचने का कष्ट उठाया कि हर नेता आपकी इच्छाओं, आपके विचारों, आपकी आस्थाओं को कुचलने को क्यों तैयार रहता है?
मैं बताता हूँ। जिस सत्ता को जनसाधारण के लिए विकासशील नीतियाँ बनाने का साधन होना चाहिए था, भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए एक माध्यम होना चाहिए था वह सत्ता स्वयम् ही साध्य हो गई।
इसके बाद तो भारतवर्ष के स्वार्थी नेता सत्ता रूपी वारंगना की सुगन्ध पाकर ही एक व्यभिचारी समान आचरण करने लग गए। कइयों के लिए संसद गन्तव्य हो गई तो कुछ ने विधान सभा को ही अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य मान लिया। जो छुटभैये थे वो निगम पार्षद बन कर अपना जीवन सफल समझने लगे, जिनकी महत्वाकांक्षा ऊँची थी वह येन-केन-प्रकारेण मन्त्री बनने के लिए रस्साकशी करने लगे। जो जीता उसने सरकार नाम की नगरवधू का भरपूर आनन्द लिया, जिसकी दाल नहीं गली वह अपना मुँह छिपा कर निकल लिया। हर बार हारी तो सिर्फ़ जनता। हिन्दू के नाम पर वोट देने वाली जनता, विकास की आशा लगाने वाली जनता, ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाने वाली जनता, ऐसे स्वार्थी नेताओं के लिए आपस में सिर फोड़ने वाली जनता।
किसी ऐसे व्यक्ति को सत्ता तक ले जाना कहाँ तक उचित है जिसकी विचारधारा समय और परिस्थितियों के साथ बदलती रहे? जो बात करे हिन्दुत्व की और इफ़्तार देशद्रोही मुसलमानों के साथ करे? ऐसे में नेता को बदला जाए या तन्त्र को? या ऐसे विधान और संविधान को जो देशभक्तों और देशद्रोहियों को समान अधिकार देता है?
इस बार टिप्पणी नहीं इस प्रश्न के उत्तर की आशा रहेगी।
Email Id: matribhoomibharat@gmail.com
शनिवार, 13 दिसंबर 2008
रविवार, 7 दिसंबर 2008
टिप्पणी पर टिप्पणी
मैं इस ब्लॉग के माध्यम से जहाँ अपनी बातें कई समान विचारधारा रखने वाले लोगों तक पहुँने में सफल हुआ हूँ वहीं कई राष्ट्रद्रोहियों और मूर्ख सेक्युलरवादियों ने दिल खोलकर मेरी निन्दा की है। ऐसे देशद्रोहियों को तिलमिलाते, छटपटाते और कराहते देखने में मुझे और मेरे कई साथियों को हर्ष व गर्व की मिश्रित अनुभूति हुई। एक ऐसे ही भाई हैं आलोक कुमार पाण्डेय जिन्होंने साम्यवाद पर हमारे प्रहारों से विचलित होकर कुछ इस तरह की टिप्पणी दी है-
इस पर भी इन्हें सन्तोष नहीं हुआ तो लीजिए दूसरी टिप्पणी चिपका दी-
मैं बताता हूँ इसमें ऐसे लोगों की क्या मंशा होती है। असल में इन लोगों के पास कहने को कुछ ठोस होता नहीं क्योंकि इन्होंने बाबा मार्क्स के आगे कुछ सोचा ही नहीं। जो उन्होंने अपनी किताब में लिखा वो इन्होंने कण्ठस्थ कर अपने गर्धवालाप में प्रस्तुत कर दिया। साथ में अपनी इस घटिया बात को भगत सिंह जैसे देशभक्त की बात से भी अलंकृत कर दिया।
इन भाई साहब को यह भी लगता है कि मैंने अपने सारे विचार केवल हिटलर की माइन कैम्फ़ (शायद इसका ये नाम नहीं जानते) पढ़ कर बनाए हैं। कल को यदि आपको मेरे ब्लॉग पर यह सूक्ति पढ़ने को मिले-
“जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”
तो राष्ट्रवाद को विदेशी विचारधारा बताने वाले पाणडेय जी के अनुसार मैंने यह भी हिटलर की किताब से उठाई होगी। खैर अब सिद्ध करने या तर्क देने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि कम्युनिस्टों का भेद अपने आप खुल चुका है।
इसलिए हे देशभक्तों!! जनता को रोटी कपड़ा और मकान को अहमियत और राष्ट्रवाद को ताक पर रखने वाली विचारधारा का अन्त समीप है। तुम्हें अपनी ठोकरों से साम्यवाद की गिरती दीवार पर प्रहार करके उसका खात्मा करना है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार 16 साल पहले तुमने कुछ देर में ही बाबरी मसजिद को मटियामेट कर दिया था।
ईमेल- matribhoomibharat@gmail.com
"आप जैसे पागल लोगों ने इस देश को कत्लोगारत का मैदान बना दिया है।
भगत सिंह ने कहा था सांप्रदायिक होना इंसानियत का दुश्मन होना है ...आप हैं
हिन्दुस्तान किसीके बाप का नहीं है
खदेडा मोदी को करकरे के घरवालों ने भी था उसकी बात क्यों नहीं करते?
लाशों पर सत्ता के महल बनाने वालों के अंत से ही यह देश प्रगति करेगा
और ये होगा ही।"
इस पर भी इन्हें सन्तोष नहीं हुआ तो लीजिए दूसरी टिप्पणी चिपका दी-
"राष्ट्रवाद भी विदेशों में ही जन्मा है ... ये लेखक हिटलर की किताब पढता है और मार्क्सवाद को गाली देता है"
मैं बताता हूँ इसमें ऐसे लोगों की क्या मंशा होती है। असल में इन लोगों के पास कहने को कुछ ठोस होता नहीं क्योंकि इन्होंने बाबा मार्क्स के आगे कुछ सोचा ही नहीं। जो उन्होंने अपनी किताब में लिखा वो इन्होंने कण्ठस्थ कर अपने गर्धवालाप में प्रस्तुत कर दिया। साथ में अपनी इस घटिया बात को भगत सिंह जैसे देशभक्त की बात से भी अलंकृत कर दिया।
इन भाई साहब को यह भी लगता है कि मैंने अपने सारे विचार केवल हिटलर की माइन कैम्फ़ (शायद इसका ये नाम नहीं जानते) पढ़ कर बनाए हैं। कल को यदि आपको मेरे ब्लॉग पर यह सूक्ति पढ़ने को मिले-
“जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”
तो राष्ट्रवाद को विदेशी विचारधारा बताने वाले पाणडेय जी के अनुसार मैंने यह भी हिटलर की किताब से उठाई होगी। खैर अब सिद्ध करने या तर्क देने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि कम्युनिस्टों का भेद अपने आप खुल चुका है।
इसलिए हे देशभक्तों!! जनता को रोटी कपड़ा और मकान को अहमियत और राष्ट्रवाद को ताक पर रखने वाली विचारधारा का अन्त समीप है। तुम्हें अपनी ठोकरों से साम्यवाद की गिरती दीवार पर प्रहार करके उसका खात्मा करना है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार 16 साल पहले तुमने कुछ देर में ही बाबरी मसजिद को मटियामेट कर दिया था।
ईमेल- matribhoomibharat@gmail.com
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