शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

शहीद:19 दिसम्बर 1927

16 दिसम्बर 1927 की रात। डीएसपी शफ़ीकुर्रहमान अपनी पत्नी मज़हर्रुन्निसा को एक काग़ज़ देते हैं जिसे लेकर वो सीधे फ़ैज़ाबाद जेल पहुँचती हैं। वो अन्दर जाती हैं और पर्चा जेल में बन्द अपने बेटे को देती हैं। ये पर्चा एक माफ़ीनामा है जिससे उस नौजवान की सज़ा कम हो सकती है। पर वो एक नज़र पर्चे को देखता है फिर अपनी माँ से कहता है-

“इस मुल्क के करोड़ों मुसलमानों में से आज तक कोई भी मादरे वतन के लिए नहीं मिटा। तू भी मुझे रोक रही है”

यह कह कर अश्फ़ाकुल्लाह ख़ान ने पीठ मोड़ ली और काकोरी काण्ड के मुजरिम के तौर पर 19 दिसम्बर 1927 को हँसते हँसते चढ़ गया फाँसी। देश के एक सच्चे सपूत की भाँति। एक सच्चे वीर की तरह

19 दिसम्बर 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल को भी काकोरी काण्ड मामले में ही गोरखपुर जेल में सूली पे चढ़ा दिया गया। शायद राष्ट्र के प्रति बलिदान देने की जिजीविषा उनमें इतनी थी कि उन्होंने पहले ही लिख दिया था-

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


कहते हैं जो समाज अपने शहीदों को भुला देता है, वीरों के बलिदानों को तिलांजलि दे देता है वो मिट जाता है। और यही शायद हमारे साथ हो रहा है। ठीक तीन महीने पहले जामिया नगर मुठभेड़ हुई थी। उसमें मारे गए देशद्रोहियों की कब्रों पर फातिहे पढ़े गए थे, उनकी मौत से क्षुब्ध होकर ईद नहीं मनाई गई थी। पर अश्फ़ाकुल्लाह जैसे शहीद को श्रद्धञ्जलि देने के लिए किसी इमाम के पास समय नहीं था। क्योंकि अश्फ़ाक़ इस्लाम के लिए नहीं देश के लिए शहीद हुआ था। उसका लक्ष्य सत्ता नहीं देश की मुक्ति था। शायद इसीलिए मुसलमानों की निगाह में वो नायक नहीं, वीर नहीं। क्योंकि इस्लाम की तो शुरुआत मुहम्मद ने मक्के की सत्ता हथियाने के लिए की थी। इसी की शिक्षा उसने दी तभी तो चाहे वो अबू बकर हों, अली हों हों सारे ख़लीफ़े पिछले वाले को मारकर ख़लीफ़ा बने। पर अश्फ़ाक ने तो देशहित में काम किया था। वो देश की कुर्सी के लिए तो लड़ाई ही नहीं कर रहा था फिर मुसलमान उसे कैसे महान् और सच्चा मुसलमान मानते। पर मैं जानता हूँ कि मेरी और मेरे जैसे राष्ट्रवादियों की दृष्टि में अश्फ़ाकुल्लाह ख़ान महान् हैं।


matribhoomibharat@gmail.com

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

बन्द करो सम्मान...., बहुत हुआ सम्मान....

देशभक्तों,

यूँ तो मैं आत्मदया और बुरे अनुभवों के प्रचार के माध्यम से किसी क्रान्ति की अपेक्षा नहीं करता। पर आज, यानी राष्ट्रीय शर्म की सातवीं बरसी पर मन कुछ दुखी था। इसलिए यदि इस आलेख से चित्त थोड़ा खिन्न हो जाए तो आप मुझे क्षमा करेंगे। ऐसी मैं आशा रखता हूँ।

यह एक विडम्बना ही है कि 6 और 13 दिसम्बर ये दोनों ही दिनांक साल में एक ही दिन पड़ती हैं। पहली जहाँ हमें हिन्दू शौर्य का स्मरण कराती है वहीं दूसरी हमारे नेताओं की अकर्मण्यता की याद दिलाती हैं। यहाँ मैं एक बात और जोड़ना चाहूँगा। इन दोनों ही घटनाओं के उत्तरदायी दो व्यक्ति है।

हमारे हिन्दू शूरवीरों ने जिस योजनाबद्ध तरीके से एक राष्ट्रीय कलंक को 6 दिसम्बर 1992 को धोया उस योजना के पीछे दो सत्ता के लालची लोगों का हाथ था। एक ने तो सत्ता का पूर्ण सुख भोग लिया पर दूसरा अभी भी कतार में है। यह व्यक्ति 13 दिसम्बर 2001 की घटना के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है। इस सत्तालोलुप व्यक्ति को आजकल भारत के प्रतीक्षारत प्रधानमन्त्री के नाम से भी जाना जा रहा है। असल में इसने भारत भूमि पर राज करने के लिए हिन्दुत्व का भी जमके सहारा लिया अपना उल्लू सीधा किया पर अब बदले माहौल को देखकर सेक्युलरवाद की राह पकड़ अपनी स्वार्थसिद्धि की कामना कर रखता है।

यदि यह हाल है आदर्शवादी और इमानदार माने जाने वाले नेताओं का तो तमाम सेक्युलरवादियों और अन्य दलों के नेताओं से कोई भी आशा रखना मूर्खता ही है।

पर कभी आपने यह सोचने का कष्ट उठाया कि हर नेता आपकी इच्छाओं, आपके विचारों, आपकी आस्थाओं को कुचलने को क्यों तैयार रहता है?

मैं बताता हूँ। जिस सत्ता को जनसाधारण के लिए विकासशील नीतियाँ बनाने का साधन होना चाहिए था, भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए एक माध्यम होना चाहिए था वह सत्ता स्वयम् ही साध्य हो गई।

इसके बाद तो भारतवर्ष के स्वार्थी नेता सत्ता रूपी वारंगना की सुगन्ध पाकर ही एक व्यभिचारी समान आचरण करने लग गए। कइयों के लिए संसद गन्तव्य हो गई तो कुछ ने विधान सभा को ही अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य मान लिया। जो छुटभैये थे वो निगम पार्षद बन कर अपना जीवन सफल समझने लगे, जिनकी महत्वाकांक्षा ऊँची थी वह येन-केन-प्रकारेण मन्त्री बनने के लिए रस्साकशी करने लगे। जो जीता उसने सरकार नाम की नगरवधू का भरपूर आनन्द लिया, जिसकी दाल नहीं गली वह अपना मुँह छिपा कर निकल लिया। हर बार हारी तो सिर्फ़ जनता। हिन्दू के नाम पर वोट देने वाली जनता, विकास की आशा लगाने वाली जनता, ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाने वाली जनता, ऐसे स्वार्थी नेताओं के लिए आपस में सिर फोड़ने वाली जनता।

किसी ऐसे व्यक्ति को सत्ता तक ले जाना कहाँ तक उचित है जिसकी विचारधारा समय और परिस्थितियों के साथ बदलती रहे? जो बात करे हिन्दुत्व की और इफ़्तार देशद्रोही मुसलमानों के साथ करे? ऐसे में नेता को बदला जाए या तन्त्र को? या ऐसे विधान और संविधान को जो देशभक्तों और देशद्रोहियों को समान अधिकार देता है?

इस बार टिप्पणी नहीं इस प्रश्न के उत्तर की आशा रहेगी।

Email Id: matribhoomibharat@gmail.com

रविवार, 7 दिसंबर 2008

टिप्पणी पर टिप्पणी

मैं इस ब्लॉग के माध्यम से जहाँ अपनी बातें कई समान विचारधारा रखने वाले लोगों तक पहुँने में सफल हुआ हूँ वहीं कई राष्ट्रद्रोहियों और मूर्ख सेक्युलरवादियों ने दिल खोलकर मेरी निन्दा की है। ऐसे देशद्रोहियों को तिलमिलाते, छटपटाते और कराहते देखने में मुझे और मेरे कई साथियों को हर्ष व गर्व की मिश्रित अनुभूति हुई। एक ऐसे ही भाई हैं आलोक कुमार पाण्डेय जिन्होंने साम्यवाद पर हमारे प्रहारों से विचलित होकर कुछ इस तरह की टिप्पणी दी है-


"आप जैसे पागल लोगों ने इस देश को कत्लोगारत का मैदान बना दिया है।
भगत सिंह ने कहा था सांप्रदायिक होना इंसानियत का दुश्मन होना है ...आप हैं
हिन्दुस्तान किसीके बाप का नहीं है
खदेडा मोदी को करकरे के घरवालों ने भी था उसकी बात क्यों नहीं करते?
लाशों पर सत्ता के महल बनाने वालों के अंत से ही यह देश प्रगति करेगा
और ये होगा ही।"



इस पर भी इन्हें सन्तोष नहीं हुआ तो लीजिए दूसरी टिप्पणी चिपका दी-

"राष्ट्रवाद भी विदेशों में ही जन्मा है ... ये लेखक हिटलर की किताब पढता है और मार्क्सवाद को गाली देता है"


मैं बताता हूँ इसमें ऐसे लोगों की क्या मंशा होती है। असल में इन लोगों के पास कहने को कुछ ठोस होता नहीं क्योंकि इन्होंने बाबा मार्क्स के आगे कुछ सोचा ही नहीं। जो उन्होंने अपनी किताब में लिखा वो इन्होंने कण्ठस्थ कर अपने गर्धवालाप में प्रस्तुत कर दिया। साथ में अपनी इस घटिया बात को भगत सिंह जैसे देशभक्त की बात से भी अलंकृत कर दिया।

इन भाई साहब को यह भी लगता है कि मैंने अपने सारे विचार केवल हिटलर की माइन कैम्फ़ (शायद इसका ये नाम नहीं जानते) पढ़ कर बनाए हैं। कल को यदि आपको मेरे ब्लॉग पर यह सूक्ति पढ़ने को मिले-

“जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”

तो राष्ट्रवाद को विदेशी विचारधारा बताने वाले पाणडेय जी के अनुसार मैंने यह भी हिटलर की किताब से उठाई होगी। खैर अब सिद्ध करने या तर्क देने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि कम्युनिस्टों का भेद अपने आप खुल चुका है।

इसलिए हे देशभक्तों!! जनता को रोटी कपड़ा और मकान को अहमियत और राष्ट्रवाद को ताक पर रखने वाली विचारधारा का अन्त समीप है। तुम्हें अपनी ठोकरों से साम्यवाद की गिरती दीवार पर प्रहार करके उसका खात्मा करना है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार 16 साल पहले तुमने कुछ देर में ही बाबरी मसजिद को मटियामेट कर दिया था।

ईमेल- matribhoomibharat@gmail.com

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

मार्क्सवाद और इस्लाम- राष्ट्रद्रोह के प्रबल अध्याय

देशप्रेमियों!!

26 से 29 नवंबर तक मुंबई में जो देश ने देखा वो सच्चे इस्लाम का चेहरा था और उसके बाद जो भी कुछ हुआ उसने मार्क्सवाद को बेनक़ाब कर दिया। लोगों ने महसूस किया कि दोनों समुदाय राष्ट्र के प्रति कितनी दुर्भावना रखते हैं। पहले तो अल्लाह के नेक बन्दों ने हमारे 185 निर्दोष लोगों को नृशंसता से मार डाला और फिर उसके अगले ही दिन जब राजनैतिक दबाव में केरल की साम्यवादी सरकार के मुख्यमंत्री मेजर सन्दीप को श्रद्धांजलि देने पहुँचे तो उनके पिता उन्नीकृष्णन द्वारा बाहर खदेड़ दिए गए। इसके बाद खिसिया के उन्होंने जो बयान दिया वह उनकी तुच्छ मानसिकता और ओछी विचारधारा का परिचायक है। उनकी घृणित टिप्पणी मैं इसलिए यहाँ नहीं लिख रहा क्योंकि ये बात देश का हर इंसान जानता है और दूसरे वो घटिया बात यहाँ लिखना एक शहीद का अपमान होगा।


हम उन सीएम साहब को कितना भी कोस लें लेकिन उन्होंने अपना मकसद हल कर ही लिया। उनके बयान से जो हमारे सुरक्षा बलों का मनोबल गिरा है वह किसी भी मार्क्सवादी और मुसलमान के लिए हर्ष का विषय है। आप इन महाशय को कितनी भी गालियाँ दे दीजिए लेकिन वह अपने राष्ट्र विरोधी एजेण्डे में सफल हो ही गए। इस पर कोई विचार नहीं करता। क्योंकि 1000 साल की ग़ुलामी के बाद हिन्दू में तार्किक शक्ति का इतना ह्रास हो चुका है कि उसे छिपी हुई बातें समझ में ही नहीं आतीं।

ज़रा सोचिए। हमारे सैन्य बलों ने जहाँ 1965, 1971 और 1999 में मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध किया वहीं 1962 में जंग के मैदान में कम्युनिस्ट चीन से टक्कर ली। ऐसे में देश के मुसलमानों और कम्युनिस्टों की आँखों को हमारे जवान और हमारी सैन्य शक्ति खटकने लगी। मुसलमान ने कश्मीर में सैन्य बलों को निशाना बनाया तो कम्युनिस्टों ने नक्सलवादियों को प्रशिक्षित करके अपनी विचारधारा को आकार देने का प्रयास किया। फिर दोनों समुदाय मिलकर शहीदों के बलिदानों को झुठलाने या फिर येन केन प्रकारेण छोटा बताने पर तुल गए। आज स्थिति खतरनाक है दिल्ली का इमाम मोहन चन्द्र शर्मा की शहादत को खाक करने की कोशिश कर रहा है तो केरल का मुख्यमन्त्री मेजर सन्दीप को अपमानित कर रहा है। वहीं मीडिया में बैठे मुसलमान और कम्युनिस्ट साध्वी और कर्नल पुरोहित को हिन्दू आतंकवादी बता कर हिन्दुत्व और सैन्यबलों पर वैचारिक प्रहार कर रहे हैं।


समय समझने और सम्भलने का है। और मामुओं यानी मार्क्सवादी और मुसलमानों को देश से ठीक वैसे ही खदेड़ने का जैसे श्री उन्नीकृष्णन ने अच्युतानन्दन को अपने घर खदेड़ा था।

वन्देमातरम्

शनिवार, 29 नवंबर 2008

फिर हँसे अल्लाह के बन्दे

हम नहीं रुकेंगे, मुम्बई नहीं डरेगी, आतंकवाद के मुँह पर तमाचा जड़ेंगे और भी न जाने क्या क्या। आप कहते रहिए जो कहना है, करने वाले अपना काम कर गए। बीस से तीस साल के कुछ जवान मुसलमानों ने पूरे शहर को सच्चे इस्लाम की परिभाषा समझा दी। जगह जगह लगे सीसीटीवी कैमरों से ली गईं तस्वीरों स्पष्ट है कि ये इस्लाम के सैनिक हँसते हँसते अपने मज़हब की राह में फ़िदा होने आए थे।

पर हमने तो ये कसम खा रखी है कि हम नहीं सुधरेंगे। इस ग़द्दार क़ौम के साथ एकता और सद्भाव फैलाएँगे। और जैसा चल रहा है वैसा चलता रहेगा। फिर कल आतंकवादी हमला होगा फिर कुछ निर्दोष हिन्दू मारे जाएँगे, फिर से राष्ट्र के नाम प्रधानमन्त्री का मरियल सन्देश आएगा, फिर से शहीदों की याद में कुछ मोमबत्तियाँ जलेंगी और हम एक बार फिर एक नए हमले का इंतज़ार करने लगेंगे। सच्चा मुसलमान (अर्थात् धोखेबाज़ नागरिक) भी घड़ियाली आँसू बहाकर कर फिर ऐसे ही नए कुकृत्य के लिए असला जमा करने लग जाएगा। फिर से हमला होगा और इसी घटनाक्रम की पुनरावृति होती रहेगी।

अब समय किसी पर दोष मढ़ने का नहीं बल्कि राष्ट्र के असली शत्रु को पहचानने का है। ग़द्दारी और आतंकवाद तो मुसलमान की फ़ितरत है ही। वो कहाँ चुप बैठने वाला है? पर बहुसंख्यक होने के बावजूद यदि तुम उसे चुप न करा पाओ तो यह तुम्हारी कमी है। नृशंसता और पशुता तो मुहम्मद द्वारा सिखाई ही गई है पर तुम यदि ऐसे लोगों को भजन सुनाओ तो वो तुम्हारी मूर्खता है।

सच्चाई तो यह है कि अल्लाह के बन्दे एक बार फिर हँसे है और क़ुरआन के अनुसार उन्हें जन्नत मिलना तय है। आख़िर 186 काफ़िरों को मौत के घाट उतारने के बाद तो अल्लाह ने इन्हें इतना सबाब दिया होगा कि इनकी आने वाली पीढ़ियों को भी जन्नत का पासपोर्ट मिल जाएगा।

बस रोई है तो केवल भारत माता। रोए हैं तो हमारे तमाम हिन्दू भाई जो बिना बात के इस्लाम की बलि चढ़ गए। क्या तुम्हें इनका क्रंदन नहीं सुनाई देता। अगर नहीं तो तुमसे बड़ा नपुंसक इस पूरे विश्व में नहीं है। तुम ऐसे ही यदि सेक्युलर बनते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब यह ऐसा ही नंगा नाच पूरे देश में दिखाएँगे। रसूल और अल्लाह की शिक्षा ऐसे ही फैलाएँगे। तुमने इस तथ्य को अभी भी नकारा तो ध्यान रखो अन्त समीप है।

बुधवार, 26 नवंबर 2008

आत्मदया नहीं आक्रोश पालो!!

देशभक्त पाठकों,

आपकी टिप्पणियाँ एवं पत्र मुझे बड़ी संख्या में प्राप्त हो रहे हैं। कुछ में प्रशंसा व्यक्त की गई है जबकि अन्य में सुझाव हैं। एक सज्जन ने मुझे सलाह दी है कि मैं इस ब्लॉग पर हिन्दुओं के विरुद्ध हो रहे मुसलमानों के अत्याचार और ज्यादतियों के आँकड़े भी दूँ। मैं इसके लिए उन्हें धन्यवाद देता हूँ। साथ ही साथ मैं उनसे क्षमा भी माँगता हूँ क्योंकि मैं अपने इस हिन्दू बन्धु की इस सलाह को मानने में सर्वथा असमर्थ हूँ।

मैं और मुझ जैसे तमाम हिन्दू ये जानते हैं कि मुसलमानों ने हमारे लोगों और हमारी मातृभूमि पर कितना अत्याचार किया है। किस तरह इन बर्बर भेड़ियों ने कश्मीरी पण्डितों पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें उनकी पितृभूमि से वञ्चित कर दिया। कैसे 1947 में इस क़ौम और गाँधी की दुरभि सन्धि से हमारी पवित्र भूमि के टुकड़े कर दिए गए।

पर मैंने इन तथ्यों का सहारा न तो कभी लिया न कभी लूँगा। क्यों? क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि इन तथ्यों से हमारे लोगों में केवल आत्मदया का ही संचार होगा। इतिहास में या वर्तमान में हो रहे अत्याचारों से केवल जुगुप्सा ही पैदा होगी जिससे हमारे लोगों में इस्लाम का डर और मज़बूत हो जाएगा।

क्रान्ति को तो वीर रस की ज़रूरत होती है। इसलिए हमें जो परिस्थिति, जो तथ्य आत्मदया का बोध कराए उससे दूर रहना और सम्भव हो तो मिटा देना ही अच्छा है। हिन्दुओं का क़त्ले-आम, नृशंस मुसलमानों द्वारा देश की दुर्दशा और इसी तरह के अन्य विलाप मैंने बहुत बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्रों में पढ़े हैं। पर इन से न तो हिन्दुत्व का भला हुआ न ही देश का। क्रान्ति का संचार होना तो बहुत दूर की बात है।

यदि हमें इस क़ौम को अपने देश से बाहर खदेड़ना है तो हमें उन्हीं उदाहरणों को याद रखना होगा जिसपर आम हिन्दू गौरव कर सके। क्योंकि क्रन्दन से तो दुख पैदा होता है और दुख से शोक की उत्पत्ति होती है। और शोकाकुल रहने वाले लोगों से किसी वीरता की उम्मीद रखना मूर्खता है। आत्मदया से पीड़ित व्यक्ति हिन्दू राष्ट्र जैसे महान् उद्देश्य के लिए असमर्थ ही नहीं बहुत बड़ा ख़तरा भी है। यह व्यक्ति तो एक बीमार सैनिक की भाँति है जो जंग के मैदान में चार सैनिकों के कंधे पर चढ़ कर अस्पताल आता है।

आत्मदया आदमी की भावनाएँ कुछ समय के लिए उद्वेलित करती है पर उसके बात जैसे-जैसे व्यक्ति तथ्य भूलता जाता है उसका उत्साह ठण्डा पड़ जाता है। फिर धीरे धीरे उसकी नपुंकता उस पर हावी हो जाती है और वह शान्त होकर सर्वधर्म समभाव जैसी कायरतापूर्ण बातें करने लग जाता है।

इसीलिए हे हिन्दू वीरों! याद रखो उस शिवाजी को जिसने मुसलमान औरंगज़ेब को उसके जीते जी अल्लाह के दर्शन कराए थे। याद करो 6 दिसम्बर 1992 को जब कुछ एक ठोकरों ने बाबरी मसजिद को मटियामेट कर दिया था। 2002 में गुजरात में कारसेवकों की निर्मम हत्या का बदला किस तरह लिया गया था। ये कुछ वाक़ये हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं। हम पर, या हमारी क़ौम पर यदि कोई अत्याचार हो रहा है तो उसके लिए हम और हमारी कायरता ही ज़िम्मेदार है। बहुसंख्यक के ऊपर यदि कोई ज़ुल्म हो रहा है तो वह प्रकाशित करने की बात नहीं बल्कि साम्प्रदायिक शर्म है और कुछ नहीं।

ईमेल सम्पर्क: matribhoomibharat@gmail.com

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

भावनाओं में मत बहो, तर्क से सोचो

देशप्रेमियों!!

आप सबकी जो टिप्पणियाँ और ईमेल मुझे प्राप्त हुए मैं उनका धन्यवाद देता हूँ। साथ ही साथ नए आलेखों के नित्य न जोड़े जाने से मुझे कई पाठकों से शिकायती पत्र भी प्राप्त हुए। हे सुधी पाठकों मैं क्षमाप्रार्थी हूँ जो इतने दिनों आपसे और इस ब्लॉग से दूर रहा। असल में मैंने सोचा कि लेखनी को थोड़ा विराम दिया जाए और थोड़ा गम्भीर मनन व चिन्तन किया जाए।

कल टीवी पर एक फ़िल्म आ रही थी। इसमें एक नायक एक मुसलमान से बड़े ही आक्रामक ढंग से पूछता है- कि ये हिन्दू का ख़ून, ये मुसलमान का ख़ून (मिलाकर) अब बता कौन सा खून हिन्दू का है, कौन सा मुसलमान का?
स्पष्ट है यह एक सेक्युलरवादी प्रपञ्च है जिसका प्रयोग तमाम मुसलमान और मार्क्सवादी हमारे हिन्दू भाइयों यानी राष्ट्रवादियों को भरमाने के लिए करते रहते हैं।
ये लोग चाहते हैं कि राष्ट्रनिष्ठ लोग इन्हीं की तरह ग़द्दार हो जाएँ और देश की अस्मिता को हरे लाल एजेण्डे से कलंकित करें। और मुझे दु:ख तो तब होता है जब लोग इनके झाँसे में आ जाते हैं। क्योंकि विशाल जनसमूह के पास सोचन समझने की शक्ति अत्यन्त न्यून होती है। वो बात को समझने के लिए तर्क की बजाय भावनाओं का सहारा लेता है और इसी बात की प्रतीक्षा ज़हरीले मुसलमानों और कम्युनिस्टों को सदैव रहती है।

अब मैं बताता हूँ कि हिन्दू और मुसलमान के ख़ून में क्या फ़र्क है। कहा गया है-

काक: कृष्ण: पिक: कृष्ण: कोभेद: पिककाकयो:।
वसन्तकाले सम्प्राप्ते काक: काक: पिक: पिक:।।

जैसे कौआ और कोयल दोनों काले होते हैं और इनमें भेद करना बड़ा मुश्किल होता है पर वसन्त ऋतु के आते ही जब कोयल मधुर गाती है और कौआ काँय काँय करता है तो असलियत का पता चल जाता है।

ऐसे ही जब जब देश में विषम परिस्थितियाँ आती हैं तब तब मुसलमान अपने रक्त का असली रंग दिखा देते हैं। चाहे 1947 का बँटवारा हो या फिर देश में बढ़ रहा आतंकवाद। सारे मुसलमान समवेत सुर में राष्ट्र का विरोध करने लगते हैं। इमाम दहाड़ते हैं। मुसलमान इंजीनियर बम बनाते हैं और अशिक्षित वर्ग बम रखता है या फिर दंगे करता है। हिन्दू सीमा पर लड़ता है तो कभी सच्चे मुसलमानों के साथ एनकाउण्टर में शहीद होता है।

हमारे और उनके ख़ून की फ़ितरत में फ़र्क है जो सामान्य रूप से दृष्टिगोचर नहीं होती पर जब जब थोड़ा अव्यवस्था का माहौल पनपता है मुसलमानों के रक्त में पड़े ग़द्दारी के बीजों को खाद पानी मिल जाता है और फिर वो अंकुरित हो उठते हैं। फिर मदरसों में पढ़ने के बाद इसलाम की पौध तैयार होती है जो अल-क़ायदा और कई ऐसे ही नुक्ते वाले संगठनों की धन वर्षा के बाद देशद्रोह की फ़सल बन कर में लहलहा उठती है।

इसलिए देशभक्तों राष्ट्रभक्ति के मार्ग से कभी न भटको, सेक्युलरवादियों के प्रपंच से भावावेग द्वारा नहीं तर्क से निपटो।

आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी। आप ईमेल पर भी सम्पर्क कर सकते हैं।
पता है: matribhoomibharat@gmail.com

भारत माता की जय!!

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

भारतीयता एक वरदान

अब मुझे यह सिद्ध करने की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं कि इसलाम और मार्क्सवाद इस देश के दो सबसे बड़े ख़तरे हैं। ये दोनों ही समुदाय अपनी कलुषित मानसिकता और विषाक्त विचारों से समाज को दूषित करने का घोर प्रयत्न निरन्तर करते रहते हैं। यह लोग हमेशा सच्चे राष्ट्रप्रेमियों को उनके मार्ग से डिगाने का भी प्रयास करते रहते हैं। इन लोगों में तार्किक शक्ति का सर्वथा अभाव रहता है। विचारों का कोई आधार नहीं होता। हो भी कैसे? देश की नींव खोदना जिनका लक्ष्य हो उनके विचार का आधार ढूँढना मूर्खता ही कहा जाएगा। और इनका साथ देने वाले सेक्युलरवादी तो इतने घाघ हैं कि तार्किक स्तर पर पिटने के बाद भोलेपन का चोगा ओढ़ लेते हैं।

वाद विवाद में जब यह सिद्ध हो जाता है कि हर सच्चा मुसलमान सच्चा राष्ट्रद्रोही है तो बेचारे सेक्युलरवादी बचने का कोई रास्ता न देखकर हम जैसे राष्ट्रवादियों से ये पूछते हैं कि अगर आप ही किसी मुसलमान के घर पैदा हो जाते तो क्या होता?
आमतौर पर कोई भी देशभक्त इस प्रश्न पर भड़क उठता है। पर मैंने जब यह प्रश्न अपने आप से पूछा तो जो उत्तर आया उसने मुझमें नई ऊर्जा और नए वैचारिक प्रकाश का संचार किया। अपना यही अनुभव मैं आप सब देश प्रेमियों के साथ बाँटना चाहता हूँ।

मैंने पाया कि हमारा भारतीय होना या हिन्दू होना भाग्यवश नहीं। भारतीयता हमारे लिए विधाता का एक वरदान है। हम जानते हैं कि प्रकृति सर्वश्रेष्ठ को चुन लेती है और इसी परम पूजनीया वसुन्धरा -जिसे हम भारत माता कहते हैं- के लिए ही उसने हमारा चयन किया है। हमें जन्मना हिन्दू बनाकर जो उपकार हमारी मातृभूमि ने हम पर किया है उससे कभी भी उऋण नहीं हुआ जा सकता। यह हमारे कई जन्मों की तपस्या का फल है।

इसीलिए हमारी सारी भावनाएँ तो इसी धरती से जुड़ी हैं। हमारा मन तो इसी पवित्रतम भूमि के प्रति कृतज्ञता में सराबोर है। हमारा रोम रोम इस धरा से उपकृत है। हम मानते हैं कि हमारा शरीर इसी मिट्टी से बना है। हम अरबी, तुर्क, फ़ारसी या ऐसी ही किसी म्लेच्छ जाति के वंशज भी नहीं। हमारा रक्त शुद्ध है। तो राष्ट्रभक्तों!! हम किसी ऐसी कौम में कैसे जा सकते थे जो मातृभूमि के विरुद्ध बारूद इकट्ठा करने में लगी है। हम कैसे किसी मुसलमान के घर पैदा हो सकते थे? अपनी आस्था के लिए साऊदी अरब की ओर कैसे झुक सकते थे? राष्ट्रगीत की अवमानना करने वाली गद्दार कौम में कैसे शामिल हो सकते थे? कैसे हम देश की जड़ें खोदने वाले लोगों के यहाँ जा सकते थे?

इसलिए हे हिन्दुओं अपने धर्म का सम्मान और देश पर गर्व तुम्हारा अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है। क्योंकि एक दिन यही पवित्र विचार हमारी मातृभूमि को इसलाम के कलंक से मुक्ति प्रदान करेंगे।


वन्देमातरम्।

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

मीडिया का सच

राष्ट्रभक्तों,

आज कुछ लोगों को मैंने दबी आवाज़ में साध्वी और ले. कर्नल श्रीकान्त की प्रशंसा करते सुना। सुनकर एक हर्षानुभूति हुई। थोड़ी आशा का संचार हुआ। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का दृढ़ संकल्प कुछ और पक्का हुआ। और लगने लगा कि अब धर्म निरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव जैसी विषैली भावनाओं का अन्त भी समीप आ गया है। देर से ही सही पर यह बात हमारे हिन्दू भाइयों की बुद्धि में आई तो। नहीं तो बेचारे गाँधी के पाखण्ड को ही सच माने बैठे थे।

फिर भी इन मीडिया वालों को समझ नहीं आई। आए भी तो कैसे? लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की नींव खोदने का बीड़ा भी तो देश की ज़ड़ें खोदने वाले सच्चे मुसलमानों ने उठा रखा है। इसलिए ये हमेशा तत्पर रहते हैं कि किसी तरह सही ख़बर को आम आदमी से दूर रख सकें। थोड़ा सा तोड़ मरोड़ कर पेश कर सकें ताकि विश्व का नज़र में हमारे सनातन धर्म को घसीट कर अपनी आतंकवादी क़ौम के स्तर पर ला सकें। जी हाँ मै सच कहता हूँ।

क्या आप लोग जानते हैं कि जो आतिफ़ आमीन नामक सच्चा मुसलमान 19 सितम्बर 2008 को जामिया नगर मुठभेड़ में मारा गया था उसका सगा भाई राग़िब आमीन न्यूज़ एक्स (आईएनएक्स ग्रुप) में सीनियर कैमरामैन है? वो कितना ज़हर फैला सकता है हमारे देश के प्रति क्या आपने कभी सोचा है?

कभी आपका ख़ून खौला जब ये मीडियाकर्मी आरोपी साध्वी को ‘उस’ और ‘इस’ जैसे सर्वनामों से अपमानित करते हैं? और तो और ये लोग दाऊद और अबू सलेम जैसे घोषित अपराधियों के नामों को बड़े आदर के साथ लेते हैं।

देर बहुत हो चुकी है। अब तो समझ जाइए। मैं जानता हूँ कि हमारे लोग जागने लगे हैं। हमारी सेना जागने लगी है। हमारी सोच जागने लगी है। हमारी चेतना जागने लगी है। अत: समय नष्ट करने की बजाय एक झटके में अपनी आँखों पर बँधी समानता और सौहर्द्र की पट्टी उखाड़ फेंको तभी हमारा विश्व विजय का निश्चय, हिन्दू राष्ट्र का संकल्प सिद्ध हो पाएगा।

भारत माता की जय!!

मेल करें: matribhoomibharat@gmail.com

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद की प्रवर्तक साध्वी प्रज्ञा

साध्वी प्रज्ञा का लाई डिटेक्टर टेस्ट हुआ। तीन दिन चले इस टेस्ट में पुलिस को हाथ लगी तो केवल नाकामी। मीडिया में बैठे तमाम सेक्युलरवादियों ने खबर चलाई कि ये साध्वी का सम्मोहन था। वह शायद तंत्र मंत्र जानती है। वह शायद जादू टोना करती हैं। इसीलिए तो अपना ‘जुर्म’ नहीं कुबूला। अरे साध्वी जी आपने क्यों नहीं कहा कि बम विस्फोट आपने ही करवाया था। देखिए बेचारे कितने अमर सिंह, लालू यादव, राम विलास पासवान, शरद पवारों की भावनाएँ आहत हुईं। कितने तौक़ीर, असलम, इस्माइल, अली, मुहम्मद, यूसुफ़, यूनिस, अकरम चकरमों के चेहरे जो अब तक ख़ुशी से चमक रहे थे आज मायूस हैं। आप क्यों नहीं समझती कि आपके इस रवैये से इसलाम ख़तरे में आ गया है?भई हमें तो यही सीख मिली है अपने गुरुजनों से, माता पिता से कि अगर तुम्हारे साँस लेने से भी मुसलमान को अगर दिक्कत हो तो थोड़ी देर रुक जाओ। सालों से हमें जो एकता और सौहार्द्र की घुट्टी पिलाई गई है ये उसी का नतीजा है। इन देशद्रोहियों के लिए प्यार पनपाने के लिए हमारे घरों में जो सीख दी जाती है उसी की वजह से हम इस क्रान्तिकारी साध्वी की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने में अक्षम हैं। धर्म निरपेक्ष दल, साम्यवादी और देशद्रोही मुसलमान हर तरह का प्रपंच कर रहे हैं किस क्रान्ति को हिन्दू आतंकवाद का नाम देकर हमारे धर्म को इतिहास में कलंकित कर दें।

हिन्दू संगठन किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। भाजपा भी गद्दारों के वोट पाने के लिए कुछ भी नहीं बोल रही। हिन्दू राष्ट्र के लिए कार्यरत होने का दावा करने वाला संघ भी इस मामले से पल्ला झाड़ रहा है। न तो पुलिस हमारे लिए है, न ही कोई राजनीतिक दल, न मीडिया। ऐसी स्थिति में एक ही विकल्प बचता है। स्वयम् अपनी रक्षा करें। अपने देश की रक्षा करें। अपने समाज की रक्षा करें। यह विद्रोह नहीं आत्मरक्षा हेतु महायज्ञ है। इसमें अगर अपना सर्वस्व भी होम करना पड़े तो करो।
चाहे जहाँ भी हो वहाँ कोशिश करो हिन्दुत्व के प्रचार प्रसार की। इसलाम के विनाश की। हिन्दुओं में एकता की, सद्भाव की। तभी हम इस देशद्रोह की महफ़िल को मातम में बदलने में कामयाब हो पाएँगे। भारत माता की जय!!

शनिवार, 25 अक्टूबर 2008

आतंकवाद नहीं आपद्धर्म है

मालेगाँव बम विस्फोट मामले में साध्वी प्रज्ञा की गिरफ़्तारी हुई, सेक्युलरवादियों की जान में जान आई, हिन्दुत्व को कोसने का एक बहाना मिल गया। हमारी सरकार को भी पहले ‘हिन्दू’ आतंकवादी को पकड़ कर एक गर्व की अनुभूति हुई। कथित बुद्धिजीवी और देशद्रोह को जनवाद व प्रगतिवाद नामों से अलंकृत करने वाले मार्क्सवादियों को मानो हिन्दुत्व घृणा प्रचार हेतु प्राणवायु मिल गई।

पर यह कैसे सम्भव है कि कोई हिन्दू आतंकवादी हो? अगर हिन्दू आतंकवादी होता तो हिन्दू हिन्दू न रहता। मुसलमान कहलाया जाता। मैं बताता हूँ क्यों। मुसलमानों के पास तो विकल्प है कि वो अपने 52 देशों में से किसी भी देश को चुन सकते हैं। उससे वफ़ादरी निभा सकते हैं। सऊदी अरब की तरफ़ नमाज़ के वक़्त सजदा कर सकते हैं। पर हम हिन्दू कहाँ जाएँगे? हमारा जीवन, हमारी मृत्यु, हमारी आस्था, हमारी गरिमा, हमारा स्वाभिमान, हमारा सम्मान, हमारा यश, हमारी कीर्ति, हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी आत्मा, हमारा सर्वस्व सब इसी परम पावन मातृभूमि के साथ जुड़ा है। तो ऐसे में यह कैसे हो सकता है कि कोई हिन्दू अपने ही देश में डर और अव्यवस्था फैलाए।

तो देशप्रेमियों मैं बताता हूँ। ये क्रिया की प्रतिक्रिया है, जैसे को तैसा, नहले पर दहला, ईंट का जवाब पत्थर से। ये आतंकवाद नहीं है प्रतिक्रियावाद है। इस देश के साथ पिछले 1000 वर्षों से मुसलमानों ने जो किया और करते जा रहे हैं ये उसका ही एक प्रतिफल है। ये आतंकवाद नहीं क्रान्ति का आह्वान है, महासंग्राम का शंखनाद है जो एक नारी ने किया है।

थोड़ा सोचिए! सैकड़ों तौकीर, अबू बशर, सलीम, अंसार, इफ़्तेख़ार, अफ़ज़ल हमारे बीच आज भी मज़े से घूम रहे हैं। हमारे निर्दोष लोगों को मार रहे हैं, अपंग बना रहे हैं। सरकार इनको पकड़ने की बजाय इनके सामने षाष्टांग प्रणाम कर रही है। हम क्या करें? हथियार उठाने के अलावा कोई और रास्ता बचता है क्या? साध्वी ने जो किया प्रतिक्रियावाद था। मैं तो कहूँगा आपद्धर्म है। यानी विपदा के समय अपनाया जाने वाला धर्म। हम सबको, पूरी कौम को यही धर्म अपनाना पड़ेगा। तभी हम इन देशद्रोहियों से पार पाने में सफल होंगे।

मेल सम्पर्क: matribhoomibharat@gmail.com

सोमवार, 20 अक्टूबर 2008

हिन्दू संगठन: दिशाहीन व लक्ष्यहीन

राष्ट्रवादियों,

बहुत दिन तक उड़ीसा और कर्णाटक में हिंसा चली। अलग-अलग हिन्दू संगठनों को इसका दोषी बताया गया। और देश में इसलाम के साथ साथ ईसाइयत भी ख़तरे में आ गई। राष्ट्र के सेक्युलरों ने सोचा अच्छा समय है हिंसा में जुटे उन हिन्दू संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाने का।


मैं भी कहता हूँ बैन लगना ही चाहिए। क्योंकि इस हिंसा से हिन्दुत्व क्रांन्ति का सृजन नहीं होगा। आप किसी भी मुसलमान पानवाले या बढ़ई या किसी ईसाई झाड़ूवाले को मारेंगे उससे कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। इस तरह की हिंसा आपकी दिशाहीनता और उत्साहातिरेक की ही परिचायक होगी।

लेकिन, यह हिंसा धर्मयुद्ध में बदली जा सकती है। अगर तुम दिशाहीन न होकर हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यदि किसी को मारते हो तो वो हिंसा नहीं होगी। वो न्याय होगा। किसी आम आदमी को सताने से कुछ नहीं मिलेगा। अगर मारना ही है तो मारो उन लोगों को जो आतंकवादियों के हिमायती है। कभी ये मौलाना मौलवी तुम्हें क्यों नहीं दिखाई देते। ये पादरी तुम्हारे निशाने पर क्यों नहीं होते। देवबंद में आईएसआई के अड्डे कैसे पनप रहे हैं। बंगाल में तुम साम्यवाद का संहार क्यों नहीं करते।

क्योंकि तुम डरते हो कि कहीं हाथ न जला बैठो। तुम्हें लगता है कि तुम किसी सेक्युलर नेता को मारते समय अपना ही नुकसान न कर बैठो।

तुम्हारे रहते मुसलमानों के प्रदर्शन हो रहे हैं और आतंकवादियों को शहीद बताया जा रहा है? कैसे नक्सली फल फूल रहे हैं? कहाँ से मिशनरियों के पास पैसा आता है? आतंकवाद की फ़ंडिंग कहाँ से हो रही है? इस हिंदू बहुल राष्ट्र में कैसे कोई मुसलमान ऊँची आवाज़ में बात कर पा रहा है?

मैं भी मानता हूँ कि हर मुसलमान आतंकवादी है पर हे हिन्दुत्व के ठेकेदारों ज़रा सोचो कि क्या आम मुसलमान को मारने से इसलाम का पेड़ गिरेगा? ये सिर्फ़ उस वृक्ष के पत्ते उखाड़ कर ख़ुश होने जैसा होगा। यदि हिम्मत है तो जड़ पर प्रहार करो।

इसलिए हे आर्यपुत्रों! इसलाम और ईसाईयत से लड़ने के लिए दिशा और लक्ष्य का निर्धारण करो। अन्यथा अपने ही धर्म के कुछ लोग तुम्हें उग्रवादी कहेंगे।


मत भूलो हमने बाबरी मसजिद के पाँच सौ साल के कलंक को पाँच घण्टे के भीतर मिटा दिया था। मत भूलो हमने गोधरा के बाद गुजरात में हिन्दुत्व का परचम फहरा दिया था। हमें राष्ट्र के कलंक इसलाम को भी ऐसे ही मिटाना है। बस प्रण करो। और फिर बिना रुके, बिना थके, बिना सफलता असफलता की कल्पना करे उसे पूरा करने में लग जाओ। जय भारत।

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008

हर बार मुसलमान ही ग़द्दार।

हे देशप्रेमियों!

हमने देखा पिछले कुछ महीनों से इस्लामपरस्तों ने अपने देशद्रोह का परिचय किस तरह दिया। कभी बम धमाके करके तो कभी आतंकवादियों को श्रद्धांजलि दे कर। जब जब निर्दोष हिन्दू मारे गए तब तब हमने किसी तौकीर, किसी अबू बशर को उस घटना के पीछे हँसता हुआ पाया। पर किसी ने नहीं सोचा कि ये मुसलमान हर बार इतनी शिद्दत से गद्दारी और पशुत्व की नई बुलन्दियाँ छूने की प्रतिभा और साहस लाते कहाँ से हैं? क्यों यह भारतभूमि इन्हें अपनी सी नहीं जान पड़ती?

मैं बताता हूँ। हर मुसलमान जब सजदे के लिए झुकता है तो उसका मुँह मक्का की ओर रहता है। मक्का यानी सऊदी अरब। रसूल के भेड़ियों का देश। जब किसी की आस्था के तार वहाँ से जुड़े हों उससे भारत से वफ़ादारी की उम्मीद रखना किसी समझदार व्यक्ति का काम तो हो नहीं सकता।

भारत का हर मुसलमान चाहे वो शिया हो या सुन्नी ये मानता है कि उसकी जड़ें यहाँ नहीं अरब, फ़ारस या ऐसे ही किसी म्लेच्छ बहुल देश में है। जबकि हर कोई जानता है कि जो मुलमान भारत में पाए जाते हैं उनके बाप दादा या तो तलवार के डर से या फिर चंद हड्डियों के लालच में मुसलमान बन गए थे। पर इनमें कोई ये मानने को तैयार नहीं कि वो मूल रूप से भारतीय है। कोई कहता है हम तो तुर्क हैं, कोई अपने आपको पठान मानता है, कोई अरब के क़ुरैश क़बीले से अपने तार जोड़ता है।
हालाँकि ये अलग बात है चाहे वो तुर्क हों या अरबी इनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहते। हिन्दुस्तान की ये देशद्रोही क़ौम जब हज पर जाती है तो वहाँ इनका स्थान सबसे पीछे होता है। और वो काला पत्थर इन्हें छूने तो क्या देखने की इजाज़त भी नहीं होती। तो कुल मिलाकर इनकी हालत कुछ कुछ धोबी के एक पशु जैसी है। अपनी मातृभूमि से गद्दारी भी की, रसूल के बन्दों ने भी नहीं अपनाया।
यानी गुनाह -बेलज़्ज़त

तो देशभक्तों, हमें यह समझ लेना चाहिए कि इस देश में यदि कोई देश की असली सन्तान हैं तो वो हम हिन्दू हैं। हमारे पास रक्त की शुद्धता भी है और मिट्टी का अभिमान भी। हमें एक लड़ाई लड़नी है, एक क्रान्ति लानी है क्योंकि हम जानते हैं कि हमारी भारत भूमि ही हमारे अस्तित्व का एकमात्र विकल्प है। इसके अलावा कोई सहारा नहीं।

अगर देर की तो रसूल और अल्लाह की विकृत मानसिकता वाले ये म्लेच्छ हमारी इस परम पूजनीया मातृभूमि को कलंकित करने का प्रयास करेंगे और हमारे पास सिवाय आत्महत्या के कोई और चारा नहीं रहेगा।
आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।



बुधवार, 8 अक्टूबर 2008

वाह रे महात्मा! वाह!!

मेरे कुछ दोस्त मुझ पर आरोप मढ़ते हैं कि मैं इस्लाम के विरुद्ध लिखने के अलावा कुछ और नहीं लिख सकता। कुछ का कहना है कि इतने दिन से कोई विस्फोट नहीं हुआ इसलिए लेखनी की धार मन्द पड़ने लगी है। यह लेख ऐसे ही लोगों के लिए लिख रहा हूँ। यह बताने के लिए कि मेरी कलम की आग बम विस्फोटों के साथ ठण्डी नहीं पड़ सकती। चलिए आज इस्लाम न सही भारत में इस्लाम के कारण की बात करते हैं

कहते हैँ आज़ादी दिलाई थी एक महात्मा ने। मतलब हम नहीं कहते ऐसा कांग्रसियों ने कहा। हमने माना क्योंकि हमारे पुरखों ने तब आँख कान बन्द कर लिए और महात्मा के चेलों ने सत्तासीन होने के लिए बेचारों का लाभ उठाया। चलिए हमें गाँधी के महात्मा होने से भी ऐतराज़ नहीं पर हम जानना चाहेंगे उन तमाम सत्ता के लड्डू चखने वाले कांग्रेसियों से और उन गाँधी टोपी पहनने वालों से कि क्या जवाब है उनके पास इन सवालों के-

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को गाँधी के प्रयासों से बचाया जा सकता था। पर ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्या गाँधी देशभक्ति से ज़्यादा राजनीति में दिलचस्पी लेने लग गए थे? क्या उनके ‘करियर’ को देशभक्त क्रान्तिकारियों व उनकी बढ़ती हुई ख्याति से ख़तरा मालूम होने लगा था?
गाँधी ने सत्य और अहिंसा की कसमें खाईं और लोगों को खाने पर मजबूर भी किया। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान उनकी लाश पर ही बनेगा। पर गाँधी की लाश 14 अगस्त 1947 में नहीं गिरी। अगर वो सत्य के मार्ग पर इतनी शिद्दत से चलते थे तो आत्महत्या क्यों नहीं की?
अंग्रेज़ों के बाद हमारे देश की आर्थिक हालत बहुत ख़राब थी। पर गाँधी के कहने पर 56 करोड़ रुपए पाकिस्तान को दिए गए। क्या हमें या जानने का अधिकार नहीं?
गाँधी ने 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन का ऐलान किया। कुछ कुछ वैसा ही जब प्रथम विश्व युद्ध के शुरुआती दिनों में लोकमान्य तिलक ने ‘कहा था लोहा गरम है चोट करो’। तब गाँधी ने इसे (अंग्रेज़ों की) पीठ पर वार करने जैसा कह के विरोध किया था। क्यों? तीस साल में क्या सारे सिद्धान्त बदल गए? या 1914 में राजनीति में चमकने का अवसर नहीं खोना चाहते थे?
नेहरू ने उन्हें बापू कहा तो देश ने राष्ट्रपिता भी मान लिया? क्यों? पिता का कर्तव्य होता है जन्म देने के बाद अपनी संतान का भरण-पोषण करना पर यहाँ तो महात्मा जी ने उसके दो टुकड़े करा डाले। क्या ये ही राष्ट्र के पिता जी का काम था?
क्यों सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव जीतने पर गाँधी ने उसे अपनी निजी हार बताया?


मुझे लगता है आप सभी पाठक पढ़े लिखे होने के साथ साथ विचारशील और मननशील भी हैं। इसलिए इन प्रश्नों पर एक बार सोचिएगा ज़रूर। सोचने पर आप पाएँगे कि एक एक प्रश्न अक्षरश: सही है।

शनिवार, 4 अक्टूबर 2008

हिन्दुओं! प्रण पालन करो


कौन कहता है कि हिन्दुस्तान में एकता नहीं? कौन ये मानता है कि हमारे देश में भाईचारा नहीं? ज़रा अखबारों में देखो। किस तरह से दो आतंकवादियों के मारे जाने के बाद तीन हज़ार लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। उनकी ये एकता किसी के लिए भी एक उदाहरण हो सकती है। आज़मगढ़ में उन सच्चे मुसलमानों की शहादत की याद में ईद नहीं मनाई गई। मुसलमान गले नहीं मिले। सेवइयाँ नहीं बनी। इमाम ने कहा इसलाम ख़तरे में है।

अभी भी आपको इस कौम की बेशर्मी नहीं दिखी? या फिर से आपने एक आम हिन्दू की तरह नज़रन्दाज़ कर दिया? कभी आपके मन में ये बात उठी कि धमाकों में इतने हिन्दू मरे हैं तो हम दिवाली न मनाएँ? आप में इतना विवेक ही कहाँ है? आप तो ख़ुश हो गए कि चलो हम और हमारे परिवार तो इन धमाकों से सुरक्षित बच कर निकल आए। हमें तो चोट नहीं लगी। तो फिर चलो मॉल घूमने चलें। नई फ़िल्म देखें। और भगवान को ख़ुश करने के नवरात्र के व्रत की रिश्वत दे देंगे। सब ठीक हो ही जाएगा।

नहीं! कुछ ठीक नहीं होगा। ये सच्चे मुसलमान देश के सच्चे दुश्मन हैं। हर बार तुम्हें ऐसे ही मारेंगे। और कोई राम, कृष्ण, शिव, कल्कि तुम्हें बचाने नहीं आएगा। क्यों? क्योंकि तुम कर्महीन हो। तुम कभी क्रान्ति नहीं करना चाहते। चाहते भी हो तो ये कि अगर चन्द्रशेखर आज़ाद और राम प्रसाद बिस्मिल पैदा हों तो वो तुम्हारे घर नहीं पड़ोसी के यहाँ हों। अरे यही मूर्खता और कायरता हमें रसातल में पहुँचा देगी। तब मॉल घूम सकोगे, ये राग रंग चल पाएँगे?

इन नर पिशाचों पर दया करना धर्म नहीं, नीति नहीं। वेद के अनुसार

यदान्त्रेषु गवीन्योर्यद् वस्तावधि संश्रुतम्।
एका ते मूत्रम् मुच्यताम् बहिर्वालिति सर्वकम्।।
-अथर्व काण्ड १ सूक्त ३ मंत्र ६
अर्थात् जैसे कि आँतों में और नाड़ियों में और मूत्राशय के भीतर जमा मल मूत्र कष्ट देता है और उसको निकाल देने से चैन मिलता है वैसे ही मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक और सामजिक शत्रुओं को निकाल देने से सुख प्राप्त करता है।
ये रक्तबीज मुसलमान भी ऐसे ही सामाजिक शत्रु हैं जिनके निकालने से हमारे देश को चैन मिलेगा। अभी भी इनको पालते रहे, इनके ज़ुल्मों के सहते रहे तो हमारा देश रोगी हो जाएगा। सोचो और विचारो।
अगर टिप्पणी नहीं करना चाहते तो मुझ़े मेल करो matribhoomibharat@gmail.com पर।

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2008

मातृभूमि की पुकार

मेरे पिछले और इस आलेख के बीच में फिर से तीन जगह धमाके हो चुके हैं। कई और लोगों की जानें गईं। गृह मन्त्री कभी अपनी तो कभी पुलिस की बगलें झाँकते नज़र आए। हमें भी लोगों को भी पता है कि इन घटनाओं में हूजी, सिमी और इंडियन मुजाहिदीन जैसे किसी इस्लामवादी संगठन का नाम सामने आएगा। कुछ शोर होगा फिर अगले धमाके तक शान्ति हो जाएगी। तूफ़ान से पहले की शान्ति। श्मशान की शान्ति। नपुंसकों की शान्ति। गाँधी की शान्ति।
मूर्ख कहीं के!! इतना सब होने के बाद भी रटेंगे ईश्वर अल्लाह तेरो नाम। सौहार्द्र के नारे लगाएँगे। प्रेम और अहिंसा के सैकड़ों साल पुराने राग का गर्धव अलाप करेंगे। लेकिन बात यदि होगी क्रान्ति के आह्वान की तो अपने में दड़बों में छिप जाएँगे।

पर अब समय आ गया है कि हमें निर्णय कर लेना चाहिए कि हमें एक सच्चे भारतीय की तरह सम्मान से जीना है या फिर इसलाम के जूते के नीचे ख़ुद को कुचलवाना है। कुछ देर हम और रुके, और थमे या सोचने लगे कि सब ठीक हो गया है तो ये अल्लाह के नेक बन्दे हमें ठिकाने लगाने के लिए फिर से तैयार हो जाएँगे। पर क्या करें अपनी क़ौम के ग़द्दारों से भी पार पाना ज़रूरी है। एकता मंच पर आतंकवादियों(मुसलमानों) के साथ शान्ति की बातें बनाने वालों को भी ठिकाने लगाना आवश्यक है।

इसलिए हे समान विचारधारा वालों मिल जाओ। हम जानते हैं कि हम कम है। हमारा धर्म अभी एकजुट नहीं, हमारे हाथों में हथियार नहीं, हमारे पास वो संख्या भी नहीं। पर हमारे पास इच्छाशक्ति है जो कि हम जैसे सोलह भी सोलह करोड़ पर भारी पड़ेंगे। रक्त की पवित्रता का परिचय दो। देशभक्ति का यज्ञ है सर्वस्व होम करने का दम रखो। वीरगति को प्राप्त हुए तो मोक्ष मिलेगा, विजय हुई तो सांसारिक सुख। निर्णय तुम्हें करना है।

बुधवार, 1 अक्टूबर 2008

विभीषण नहीं कृष्ण बनिए

मित्रों मुझे इस ब्लॉग को आरमभ करे मात्र कुछ ही दिन हुए हैं पर लोगों का ध्यान व उनकी टिप्पणियाँ प्राप्त होने लगी हैं। जिनको देखकर मैंने पाया कि बहुत कम हिन्दू ऐसे हैं जो इस ब्लॉग से प्रसन्न हैं। अन्य सभी ये मानते हैं कि मेरे विचार अतिवादी और सच्चाई से परे हैं। कइयों ने कहा कि क्रान्ति ब्लॉग के माध्यम से नहीं होती। मैं कहता हूँ हे जयचंदों! क्या आपने ही अपने धर्म के विनाश का ठेका ले रखा है? कुछ काम सच्चे मुसलमानों को भी तो करने दीजिए।

मैंने पांचजन्य और ऑर्गनाइज़र दोनों ही पढ़े हैं और पाया कि उनके आलेखों में वो जान, वो जज़्बा नहीं था। लेखनी जैसे विलाप कर रही थी। कभी मन्दिरों के तोड़े जाने का, कभी पाकिस्तानी हिन्दुओं की स्थिति का, कभी किसी संन्यासी की हत्या का और कभी धर्मांतरण का हवाला देकर दिन्दुओं को जगाने की नाकाम कोशिश की जा रही थी।

इसलिए मैंने जो आलेख इस ब्लॉग में प्रकाशित किए उनमें कहीं भी कोई आत्मदया का सुर नहीं था, बस सच था... वो सच जो हम वर्षों से नज़रन्दाज़ करते आए हैं... वो सच जो हमारे पूर्वजों ने नकारा और हानि उठाई। अब मैं लोगों को जगाने का काम कर लहा हूँ तो क्यों आपत्ति है, क्यों कुछ लोगों के पेट में दर्द हो रहा है?

मेरी जन्मभूमि पर अत्याचार हो रहा है तो मैं क्यों चुप रहूँ? मैं औरों की तरह अल्लाह के बन्दों के हाथों मरने नहीं आया। मैं किसी बम हादसे का भी शिकार नहीं होऊँगा। मैं किसी सरकार के हाथों की भी कठपुतली नहीं। मैं इतना निर्बल नहीं जो लोगों की टिप्पणियों से अपनी विचारधारा के मार्ग को परिवर्तित कर दूँगा। हो सकता है कि आज कुछ निर्जीव हिन्दुओं को मेरी बात का ‘लॉजिक’ न समझ में आए पर मैं आशान्वित हूँ कि भविष्य में ऐसा अवश्य होगा और तब इस देश की हिन्दू राष्ट्र की कल्पना साकार होगी। इसलिए हे मूर्खों अधर्म के इस युग में विभीषण मत बनो क्योंकि तुम जैसे घर के भेदियों से पहले ही हमारी मातृभूमि का सीना छलनी है।

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:,
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्
परित्राणाय साधूनाम् विनाशायच दुष्कृता
धर्मसंस्थापनार्थाय संभावामि युगे युगे”

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

रसूल और अल्लाह की समझदारी

सारे मुसलमान मानते हैं कि उनका पन्थ सर्वश्रेष्ठ है और वैज्ञानिक भी। पर हम ‘मासूम हिन्दू’ सर्व धर्म समभाव के मारग पर चल कर उन को अपने बराबर का मान लेते हैं। लेकिन यह देखने की, जानने की कोशिश नहीं करते कि आख़िर इस्लाम में ऐसा क्या है जो वैज्ञानिक है, सबसे अलग है।

हम बताते हैं। कुरआन (शरीफ़???) में जिस विज्ञान का परिचय दिया गया है वो आर्यभट्ट से लेकर नासा के वैज्ञानिकों तक की कल्पने से भी परे है। आइए जानते हैं क्या है वो अद्भुत जानकारी-

“अल्लाज़ी खलक सब्आ समावातिन तिबाका”
-कुरान, सूरत मुल्क, पारा 29, आयत 3

यानी वह ख़ुदा जिसने उत्पन्न किए एक एक करके सात आसमान। ये सात आसमान कुछ इस प्रकार के हैं-

1. पहला समुद्र की एक लहर के समान है;
2. दूसरा संगमरमर का;
3. तीसरा लोहे का;
4. चौथा ताँबे का है;
5. पाँचवाँ आसमान चाँदी का बना है;
6. छठा सोने का है;
7. और सातवाँ याक़ूत (काले मोती) से बना है

अब मूर्खता की सीमा तक अज्ञानी रसूल और अल्लाह को सिखाए कि आसमान कुछ होता ही नहीं बस एक खाली जगह है जहाँ सारे खगोलीय पिण्ड अपनी अपनी गति और कक्षा में विचरण कर रहे हैं? और जो चीज़ है ही नहीं उसके ऊपर उस जैसी छ: और चीज़ों का रखा जाना ‘अति वैज्ञानिक’ मस्तिष्क की वाहियात उपज है।

अब सोचो क्या हम ऐसी घटिया बाते सिखाने वाले अल्लाह और रसूल को अपने ईश्वर के साथ रख सकते हैं। आगे भी आपको ऐसी आँखें खोलने वाली जानकारियाँ दी जाती रहेंगी। तो पढ़ते रहिए और जो पढ़ा है उस पर एक बार ज़रूर सोचिए।

रविवार, 28 सितंबर 2008

मोहन शर्मा की शहादत से ख़तरे में इसलाम

दिल्ली में हुए सिलसिलेवार बम विस्फोटों के बाद दिल्ली पुलिस ने अब तक जो भी किया है वह निश्चय ही प्रशंसनीय है। हमने देखा किस तरह से एक एनकाउण्टर के दौरान इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा ने अपनी शहादत दी और कॉंस्टेबल बलवन्त राणा घायल हुए।

जामिया नगर(सराय दहशतग़र्द) में हुई मुठभेड़ ने देश की जनता में आशा का संचार किया। पर पुलिस को क्या मालूम था कि उसके केवल दो लोगों की वीरता से सारा इस्लाम ख़तरे में पड़ जाएगा। जब इमाम बुख़ारी साहब ने मारे गए आतिफ़ और साज़िद की कब्रों का सजदा किया तो उन्हें इलहाम हुआ कि वो दिल्ली पुलिस का षडयंत्र था। फिर उन्होंने मीडिया के सामने एक बयान दिया जिसमें उन्होंने दिल्ली पुलिस पर ही शर्मा साहब की हत्या का आरोप लगा दिया। उनसे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? अब पैग़म्बर मुहम्मद के बाद जो भी ख़लीफ़ा बना पिछले ख़लीफ़ा को क़त्ल कर के बना। ऐसे गिरोह... क्षमा कीजिएगा क़ौम के एक अदना से सिपाही से अच्छा सोचने की आशा रखना हमारी ही मूर्खता का परिचायक होगा।

अब बताइए क्या करे पुलिस? बम विस्फोट हो जाएँ तो आफ़त, आरोपी पकड़े जाएँ तो अलपसंख्यकों पर अत्याचार, मुठभेड़ में आतंकियों को मारे तो हत्यारी। ऊपर से आतंकवादियों पर दया दृष्टि रखकर मुसलमानों के वोट पाने की उम्मीद में बैठी सरकार। यानी कोढ़ में खाज।

ख़ैर हम बचपन से एक कहावत सुनते आए है- “हाथी चला जाता है कुत्ते भौंकते रह जाते हैं”। दिल्ली पुलिस ने तो अपना काम कर दिया अब बुख़ारी साहब अपना काम कर रहे हैं।

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

बहुत सही बात है। अल्लामा इक़बाल (जो स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान चले गए थे) का गीत सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा बरसों से गाया जाता रहा है। ऐसे में किसी ने उस गाने को ठीक से समझने की कोशिश नहीं की।

इक़बाल साहब लिखते हैं- ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ तो हम भी सोच में पड़ जाते हैं कि कौन सा ऐसा धर्म होगा जो नफ़रत सिखाता होगा? पर मूर्खता की पराकाष्ठा तक भोले भाले हिन्दुओं को कौन समझाए कि सच्चाई क्या है।

यहाँ मज़हब का मतलब क़ुरआन से लिया गया है। कुरआन में लिखा है-

“मुहम्मदुर्रसूलुल्लाहे वल्लज़ीना मआहु अशिद्दाओं अलल्कुफ़्फ़ारे रोहमाओ वैनहुम”
कुरआन पारा 26 रकू 4/12 मु. फ़हे

इसका मतलब है कि मुहम्मद ही अल्लाह का सच्चा रसूल है और जो मुसलमान (मोमिन) उसके साथ हैं वो आपस में दयालु हैं और काफ़िरों (इसलाम पर ईमान न लाने वालों) के लिए बहुत कठोर और कड़े हृदय वाले हैं।
ऐस में मज़हब सिखाता है कि मोमिनों आपस में कभी बैर मत रखो क्योंकि उससे काफ़िरों के हाथ ही मज़बूत होंगे।
एक और आयत इस प्रकार है-

“व मय्यंव्तग़े ग़ैरल्इस्लामे दीनन फ़लय्युंक्वलामिन्हो व हुवा फ़िल आखेरते मिनल्ख़ासिरीन”
कुरआन पारा 3 रकू 6-17

यह आयत कहती है कि जो इस्लाम (दीन) के अलावा कोई और मत स्वीकार करेगा और हज़रत मुहम्मद जो कि तमाम अन्य मज़हबों को निरस्त करने वाले हैं (उनकी आज्ञा नहीं मानेगा) तो उसे कभी भी स्वीकार नहीं किया जाएगा और ऐसा व्यक्ति परलोक में भी हानि उठाएगा।

इनका पन्थ कभी भी इनके छोटी सी सोच के दायरे से बाहर नहीं निकल सका जबकि हम लोगों की सोच हमेशा से ही वसुधैव कुटुम्बकम् रही। हमारा और इनका मेल हो सकता है भला। गंगा और किसी नाले का भला कोई साम्य हो सकता है?

मैं कहता हूँ मुहम्मद है क्या चीज़? जो हमारे धर्म को निरस्त कर देगा। ख़ैर अब तक तो वो और उसके बंदे मिलकर हमारे धर्म का कुछ विशेष नुक़सान कर नहीं पाए हैं पर हम कब समझेंगे इन लोगों के वहशीपन को? हम कब मिटाएँगे अपनी अज्ञानता को? कब जानेंगे कि हमारा धर्म सनातन है जिसका न कोई आदि है न अन्त। और इनका धर्म... क्षमा कीजिए पंथ किसी गडरिए का निरर्थक संवाद है। किसी अनपढ़ आदमी के दिमाग़ की उपज। थोड़ा समझिए और हिन्दुत्व क्रान्ति का आह्वान् कीजिए।

बुधवार, 24 सितंबर 2008

मुशीरुल हसन: आतंकवादियों का रहनुमा

देश भर की पुलिस ने आतंकवादियों की धरपकड़ तेज़ कर दी है। इस क्रम में जगह जगह से लोगों मेरा मतलब अल्लाह के नेक बंदों को पकड़ा जा रहा है। दिल्ली में एक तो मुंबई में पाँच सच्चे मुसलमानों को गिरफ़्तार किया गया है। सब के सब पढ़े लिखे हैं। कोई इंजीनियर है तो कोई दार्शनिक, ऐसे में कौन कहता है इस्लाम प्यार और अमन सिखाता है?

जामिया नगर का जामिया विश्वविद्यालय यानी पढ़े लिखे आतंकवादियों का गढ़। ये बात आज साबित भी हो गई जब यहाँ के उपकुलपति मुशीरउल हसन ने पकड़े गए ‘मासूम’ छात्रों को क़ानूनी मदद देने की बात की। क्या बा है! मुझे अपने आप पर और आप पर बड़ी लज्जा आई। ये सोच कर कि हम कैसे लोगों के बीच रह रहे हैं। इस क़ौम के साथ रहना ही परमवीर चक्र जीतने के बराबर है। बस यही एक कसर बाक़ी थी। मुसलमान यानी वो समुदाय जिसका एक धड़ा पहले हम काफ़िरों को मारता है और इनके प्रबुद्ध जन अपनी शिक्षा को हमारे विरुद्ध प्रयोग में लाते हैं।

जामिया का मतलब समुदाय या कुछ लोगों का समूह। अगर चलताऊ भाषा में क जाए तो एक अड्डा.... जी हाँ आतंक का अड्डा और ये सब वहीं तो होगा जहाँ कुरआन शरीफ़ (सचमुच शरीफ़???) को मानने वालों की संख्या अधिक हो। और इन लोगों से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं। अनपढ़ रहेंगे तो दंगे करेंगे। पढ़ेंगे तो बम बनाएँगे। इतिहासकार हुए तो हमारे ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करेंगे, डॉक्टर हुए तो अतंकियों के मुफ़्त ऑपरेशन करेंगे।

हम हिन्दू आँखें बन्द किए बैठे रहेंगे कभी राम तो कभी कृष्ण की महिमा के बखान करेंगे और ऐसे ही इन गोमाँस खाने वालों की मुसलमानियत के शिकार होते रहेंगे। थोड़ा सोचिए मज़हब की सेवा करने वालों के सामने हम कहाँ टिकते हैं?

सोमवार, 22 सितंबर 2008

आतंक का राजा कौन? इमाम बुखारी

आज एक न्यूज़ चैनल पर हेडलाइन चल रही थी- ‘फिर फिसली सानिया’। ख़बर सानिया मिर्ज़ा की डब्ल्यूटाए रैंकिग में 92वें स्थान पर फिसलने को लेकर थी। ग़लत बात है। ऐसा किसी को नहीं कहना चाहिए वो भी तब जब कोई व्यक्ति ग़लत लाइन में हो। अब अगर सानिया मिर्ज़ा बम बनाने का काम कर रही होतीं तो फिसलने का कोई सवाल उठता? अब एक तो आतंकवादी क़ौम की उस लड़की से आप छोटी छोटी स्कर्टें पहना कर टेनिस खिलवाएँगे तो उसका फिसलना तो अवश्यंभावी है ही....जब मोहम्मद अज़हरुद्दीन को हमने कप्तान बनाया था तो क्या हुआ था? उसने टीम इण्डिया को ही बेच डाला था।
चलिए छोड़ें अब बात उन सच्चे मुसलमानों की जिनका एनकाउण्टर करके जिन्हें दिल्ली पुलिस ने कुत्ते की मौत मार दिया। पोस्टमॉर्टम के बाद उनको परिवार को सौंप दिया गया लेकिन उनको दफ़नाने के दौरान घरवाले भी मौजूद नहीं थे। थे तो जामा मस्जिद के इमाम बुख़ारी साहब जो ऐसे मौकों पर अक्सर देखे जाते हैं पर कोई न्यूज़ चैनल नहीं बोला। क्यों? क्योंकि सब डरते हैं मुसलमान नाराज़ हो जाएगा। अरे कब तक इन रक्तबीजों की नाराज़गी से डरोगे? 30 प्रतिशत होते ही इन अल्लाह के बंदों का नंगा नाच शुरू हो जाएगा तब 30 प्रतिशत से 100 प्रतिशत होने में इन्हें ज़्यादा समय नहीं लगेगा। अरे रक्तपिपासु आदमख़ोरों पर कैसी दया? इनके कौन से मानवाधिकार? और किस बात से डर रहे हो? एक बार डर को त्याग दो और कूद पड़ो मैदान में हिंदुत्व के रक्षक सेनानियों की भाँति फिर देखो ये 16 प्रतिशत आबादी कैसे दुम दबा कर अपने आकाओं के पास पाकिस्तान भागती है।

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

आतंकी गिरफ़्तार या अल्पसंख्यकों पर अत्याचार?

मैं पहले ही जानता था कि जो एनकाउण्टर हुए उस में से कोई नुक़्ते वाला नाम ही निकल कर सामने आएगा और इलाका भी कोई मुसलमानी ही होगा। दिल्ली का जामिया नगर यानी भारत में बसा मिनी पाकिस्तान, आतंकवादियों (मुसलमानों) की धर्मशाला और देश के विरुद्ध प्रयोग होने वाले हथियारों का गोदाम। इसीलिए यदि यहाँ के निवासियों को सच्चा मुसलमान कहा जाए तो कुछ ग़लत नहीं होगा।

ये तो था इलाके का कच्चा चिट्ठा। अब आगे की बात कहते हैं। टीवी पर पूरे दिन यही चलता रहा आतंकी गिरफ़्तार हुआ पर मैं कहता हूँ अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हुआ। अरे भई जब वो अपने मज़हब की राह पर चल रहे थे तो पुलिस ने उनकी राह में रोड़ा क्यों अटकाया। शायद सरकार नहीं चाहती कि इस्लाम का ठीक ढंग से पालन हो सके। शायद पुलिस काफ़िरों (हिंदुओं) को बचाना चाहती है उन सच्चे मुसलमानों के हाथों से मरने से जो हमें मारने के नए नए तरीके ईजाद करते हैं।

चलो आतंकियों को तो मौत के घाट उतार दिया गया लेकिन अपने ही धर्म के उन लाखों विभीषणों और जयचंदों का क्या करें जो मुलमानों के साथ एकता के गीत गा रहे हैं। अरे ज़रा देखो इनके लोगों को ये लोग १९ सितंबर २००८ के एनकाउण्टर को फ़र्ज़ी बता रहे हैं। पुलिस का एक इंस्पेक्टर शहीद हो गया लेकिन इनका कहना है कि वो आतंकी दहशतगर्द नहीं बल्कि छात्र थे। मैं भी कहता हूँ वो छात्र थे। किसी स्कूल के नहीं बल्कि मदरसे के और कुरान पढ़ कर रट कर बड़े हुए थे। नहीं तो इनके अलावा कौन सा ऐसा स्कूल है जो पुलिस पर फ़ायरिंग की ट्रेनिंग देता है।

बात सोचने की है सोचो, तोलो और मत बोलो क्योंकि हम धर्म निरपेक्ष राष्ट्र हैं। जिसमें इन बर्बर आक्रान्ताओं, अल्लाह को माने वालों को तो अपनी हैवानियत फैलाने का पूरा हक़ है पर हिन्दू को सच कहने का नहीं।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

सोच का फ़र्क

मैंने हिंदू और मुसलमान दोनों ही अध्ययन किया और ये जानने की कोशिश की कि हम हिन्दू उनसे इतना क्यों पीछे हैं.... आमतौर पर हमारे कई हिन्दू ये नहीं मानेंगे पर मैं मानता हूँ कि हमारा धर्म हमारी क़ौम कमज़ोर है। क्यों? क्योंकि हमारे बच्चे धर्म से ज़्यादा रोटी कपड़ा और मक़ान के सपने देखते हैं।



मैंने देखा है एक मुसलमान चाहे वो डॉक्टर हनीफ़ या तौक़ीर जैसा सच्चा मुसलमान न भी हो तब भी क़ौम को नहीं भूलता। जब इनके चार लोग कहीं भी बैठते हैं तो चाहे वो रिक्शे वाले हों या फिर प्रबुद्ध जन अपनी क़ौम के हक़ की बात करते हैं। चाहे उठंगा पायजामा या दाढ़ी न भी रखें पर क़ौम ही सर्वोपरि रहती है।



लेकिन एक हिंदू अपने आप को 'लिबरल' दिखाने में ज़्यादा दिलचस्पी लेता है। मात्र पाँच हज़ार रुपए की नौकरी हो तब भी पार्टी करने की सोचता है। अपने आराम में ख़लल न पड़े इसलिए हमेशा एकता और साम्प्रदायिक सद्भावना जैसी बात करता है।

अरे मेरे भाइयों ज़रा सोचो जिस दिन ये लोग पाकिस्तान के अपने भाइयों को यहाँ बसाएँगे, इन मुसलमान डॉक्टरों, इंजीनियरों के बम हम पर चलाए जाएँगे, तब तुम पार्टी कर पाओगे, मौज मस्ती कर पाओगे।

ज़रा सोचो हिंदुस्तान के इन करोड़ों आईएसआई एजेंटों से क्या तुम सुरक्षित हो? ऐसे कई तौक़ीर और हनीफ़ हमारे बीच हैं जो लगभग हज़ार साल से हमारी मातृभूमि के सीने पर मूँग दल रहे हैं। ये लोग दिन में भाईचारे की बात करते हैं और रात को दंगे और आतंक की फ़सल बोते हैं पर हम मस्त हैं बिना सोचे समझे कहते हैं ईश्वर अल्लाह तेरो नाम।

इन लोगों को धर्म निरपेक्षता यहीं सूझती है इस भारत भूमि पर क्योंकि यह दारुल हरब (जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हों) है। पर पंथ निरपेक्षता किसी मुसलमान देश में नहीं अपनाई जाती वहाँ सब कुछ क़ुरान के अनुसार होता है।

वो हमें मारे हमारा क़त्ले आम करें पर किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। क्योंकि हमारे धर्म के साथ राजनीति हो रही है और देशद्रोहियों को दावतें दी जा रही हैं। अब भी जाग जाओ नहीं तो ये रक्तबीज देश को दीमक की तरह चाट जाएँगे तब तुम्हारा ये एकता का अलाप विलाप में बदल जाएगा। सोचो तब क्या करोगे?

सोमवार, 15 सितंबर 2008

महँगा पड़ेगा भाईचारा



हे महामूर्ख हिंदुओं मैंने तुम्हें कई बार ‘पवित्र’ रमज़ान के मौक़े पर देशद्रोहियों के साथ इफ़्तारी करते देखा है। बहुत अच्छी बात है। सर्वधर्म समभाव और परस्पर प्रेम फैलाने का ठेका तो सालों से तुमने उठाया है और आगे भी उठाते रहोगे। हो सकता है कल को तुम धर्म निरपेक्षता के नाम पर उनकी जूठन भी चाट जाओ।

हे
चिकन कोरमा और दो पूड़ी के लालच में बिकने वालों ज़रा ग़ौर से देखो इन म्लेच्छों की शक़्लों को... इनकी दाढ़ियों और इनके पर्दे में उस ख़ौफ़ को पढ़ो... इनकी सूरतों से टपकने वाली जेहाद को देखो... फिर सोचो क्यों तुम इनकी मदद करके अपने ही धर्म के दुश्मन बन रहे हो... क्यों तुम किसी अनवर, अशरफ़ या इक़बाल को भाई बोलते हो... क्या उन्होंने तुम्हें भाई माना है?

हर बार एक धमाका होता है और हर बार निर्दोष हिंदू मारे जाते हैं.. हर त्रासदी के पीछे कोई न कोई अबू, इब्राहीम या नईम ही होता है... पर जब तक तुम पर नहीं बीतती तब तक तुम शोरबे के चटखारे लेते हो।

कबाब की टँगड़ियाँ तोड़ने से पहले एक बार सोचो ये लोग अगर ऐसे ही बढ़ते रहे तो तुम्हारी भी टाँगें ऐसे ही तोड़ी जाएँगी... तुम्हारे घर की अस्मत तार तार होगी.... यदि समय रहते इन लहराती दाढ़ियों और चमकती टोपियों का कुछ नहीं किया गया तो क्या होगा इसकी कल्पना भी कठिन है.... भारत को श्मशान बनने से बचाओ... इनसे संबंध रखने से पहले अपनी माँ और मातृभूमि के बारे में एक बार सोचो।